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________________ - तत्त्वोपनिषद् - - ३५ मुख्यत्वाच्च मानादेः। धिक् तं धर्माभिधेयम्। न हि व्याजादिह धर्मो भवति, किन्तु शुद्धाशयात्। रागादिमोचकादेवानल्पतरतदुद्भव इति जलादनलोत्थानम्। तन्नायं धर्मः, अपि तु कलिदीपनम्। विवाद एव तत्त्वावगमाभावपिशुन इति तत्त्वविदः। यदाहुः- यथावस्थितविज्ञाततत्स्वरूपास्तु किं क्वचित्। विवदन्ते महात्मानस्तत्त्वविश्रान्तदृष्टयः? - इति। विवादत्यागः खलु बोधपरिणतिलिङ्गमित्याचार्याः। यदित्थं कृपणं कृपापात्रं दयास्पदमिति यावत्, जगत् अनर्थमुखैः माना हुआ धर्म है। ऐसे धर्म को भी धिक्कार हो। जहाँ तत्त्व गौण हो और अभिमान मुख्य हो, सत्य गौण हो और प्रतिष्ठा मुख्य हो, आराधना गौण हो और आडंबर मुख्य हो, कल्याण गौण हो और स्पर्द्धा मुख्य हो, मोक्ष गौण हो और स्वार्थ मुख्य हो उसे धर्म कहना ये भी धर्म का बड़ा अपमान है। इससे तो परस्पर वैर-मत्सर-इर्ष्या की भावना बढ़ती है। झगडे होते है। ‘आत्मा रागद्वेष की भावना से मुक्त हो' यही तो धर्मका फल है। मगर जब धर्म से ही राग-द्वेष प्रबल हो तो उसे क्या कहना ? यह तो पानी में से अग्नि को उत्पन्न करने के समान है। ___कलह ही बताता है कि ये धर्म नहीं। जिन्हें वास्तव में तत्त्वप्राप्ति हुई हैं वे कभी विवाद में नहीं पडते। कहा भी है कि- जो पदार्थ के यथावस्थित स्वरूप को जानते है, जिनकी दृष्टि तत्त्व में ही प्रतिष्ठित है, ऐसे महात्मा क्याँ कभी विवाद करते है ? श्री हरिभद्रसूरिजी ने ललितविस्तरा नाम के ग्रंथ में तो कहा है कि विवाद का त्याग यह ज्ञान की परिणति का परिचयचिह्न है। जान बुझकर भोली जनता को मोहित करके धर्म के नाम पर कलह-विवादवैमनस्य का निर्माण करना इससे बड़ा क्या अपराध हो सकता है ?
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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