SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ -तत्त्वोपनिषद्तादृशां प्रशस्यमिति किं वक्तव्यम् ? नातः परा विडम्बनाः। न चात्र तत्त्वजिज्ञासागन्धोऽपि। दूरे तदवाप्तियत्नादि। __यद्वाऽन्योऽर्थः। विरोधशीलाबहुश्रुतजनस्य साधुशास्त्रेषु चतुर्धाऽऽचरणं सम्भवि, (१) तेष्वपि विरोधाऽऽपादनेन तल्लाघवकरणम्, विरोधशील इति विरोधापादनस्वभाव इत्यर्थग्रहणात्। (२) तत्पठनानन्तरमौदासीन्येन तदवज्ञा। (३) तददर्शनम्, तदद्वेषसचिवम्। (४) मध्यस्थदृशा तदध्ययनेन तत्त्वावाप्तिः। एष्वाद्यौ विकल्पौ निन्द्यौ। तुर्यस्तूत्कृष्टः। तृतीयोऽपि प्रशस्य इति, तत्त्वप्रवृत्तिप्रथमाङ्गत्वादद्वेषस्य, न चाश्रुत इत्यकल्पनम्, ज्ञापकसद्भावात्, उसका अर्थ है, परस्पर अनुरूप है अर्थ जिनका यानि जो कुछ भी कहा जाय उससे पूर्व या पश्चात् वक्तव्य का विरोध न हो, सब कुछ परस्पर संगत हो, ऐसे शास्त्र है परस्परान्वर्थि। ___अब श्लोक की चरम पंक्ति का एक अन्य अर्थ देखे। पंक्ति हैनहीं देखता है यह भी प्रशंसापात्र है। विरोधशील अल्पश्रुत जन उन महान शास्त्रों के साथ चार प्रकार के बर्ताव कर सकते है - (१) (यहा विरोधशील = हर जगह विरोध उठानेवाला) उन महान शास्त्रों में भी विरोध उठाकर उनका अपमान करे। (२) उन्हें पढकर उनकी उपेक्षा-अवज्ञा करे। (३) उनका दर्शन ही न करे और उन पर द्वेष भी न रखे। (४) मध्यस्थता से उनका अध्ययन करके तत्त्व की प्राप्ति करे। यहाँ प्रथम दो विकल्प तो निंदनीय है। चतुर्थ उत्कृष्ट है। तृतीय में मूलकार कहते है हम उनकी भी प्रशंसा करते है। जैसे कि उपदेशरत्नाकर में श्रीमुनिसुंदरसूरिजी ने कहा कि, ऊँट अंगुर को छोड़ देता है, मगर जो उसकी बुराइ करके निंदा नहीं करता उस ऊँट की भी मैं प्रशंसा
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy