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________________ २५ - तत्त्वोपनिषद् कृतानि शास्त्राण्यविरोधदर्शिभिः। विरोधशीलस्त्वबहुश्रुतो जनो, न पश्यतीत्येतदपि प्रशस्यते।।११।। आस्तां तद्गुम्फनम्, विरोधं पश्यन्त्यपि नेत्यविरोधदर्शिनः, तैः साधुभिः कृतेषु शास्त्रेषु स्यादेव परस्परमनुरूपार्थता, पूर्वापरविरोधलवविरहात्। अनुरूपार्थोऽस्त्येषामित्यन्वर्थिनस्तद्भावस्तत्ता, तया तत्पुरस्सरम्, तत्प्रधानानि शास्त्राणीत्याशयः विरोधशीलताप्रयोजकस्त्वाजन्माभ्यस्तविरोधबहुलग्रन्थाभ्यासः, तच्छ्रद्धा च। तेषामबहुश्रुतानां साधुशास्त्रादर्शनमपि का निर्माण किया। मगर विरोध स्वभाव वाले, अबहुश्रुत जन इन शास्त्रों को देखते नही है और यह (न देखना) भी प्रशस्य बनता है।।११।। परस्पर पूर्वापर विरोधी ऐसे शास्त्र की रचना तो दूर ही रहो, जो विरोध को देखते भी नहीं, ऐसे अविरोध के दृष्टा महात्माओंने परस्पर अन्वर्थयुक्त ऐसे शास्त्रों का निर्माण किया जिनमें विरोध का नामोनिशान नहीं, कडी परीक्षा में भी अग्नि से शुद्ध सुवर्ण की तरह वे अधिक तेजस्वी हो जाते है, जो पूर्णतया विनिश्चित और युक्ति से समृद्ध है। मगर जो अल्पश्रुत जन है, थोडा बहुत पढ़कर अपने आपको विद्वान समज़ बैठा है, विरोध से भरपूर ग्रंथों को पढ़कर उन पर अटल श्रद्धा रखने से उसका स्वभाव भी विरोधमय बन चूका है, ऐसे लोग उन महान शास्त्रों से दूर रहते है। वे उनकों देखते ही नहीं। और हद तो तब हो जाती है कि 'हम ये सब नहीं पढ़ते' ऐसी बात गर्व के साथ कही जाती है और यह बात भी उन जैसे लोगों में प्रशंसापात्र बन जाती है। इससे अधिक विडम्बना क्या हो सकती है? दुःख के साथ कहना पडता है कि इस परिस्थिति में तत्त्वजिज्ञासा की भी कोई गुंजाइश नहीं। तो फिर तत्त्वान्वेषण और तत्त्वप्राप्ति की तो बात ही कहाँ रही ? यहा श्लोक के प्रारम्भ में ही जो परस्परान्वर्थितया ऐसा कहा है,
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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