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प्रस्तावना
संस्कृत वाङ्मय में व्याकरणका विशिष्ट स्थान है- इतनाहीं नहीं, आज वह संस्कृतभाषा जाननेका एकमात्र साधन है । दूसरी किसीभी उन्नतसे उन्नत कही जानेवाली भाषाके व्याकरणके अध्ययनसे उस भाषाका ज्ञान नहीं होता । क्योंकि दूसरे कोई भी व्याकरण प्रकृति--प्रत्यय आदि विभागों के द्वारा शब्दोंका साधन नहीं करते । इसलिये संस्कृतव्याकरणका हीं
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व्याकरण
( शब्दका व्युत्पादन करनेवाला शास्त्र) ऐसा नाम सार्थक है । संस्कृत व्याकरणकी इस विशिष्टताको दृष्टिमें रखकर हीं - ' मुखं व्याकरणं स्मृतम् ' = व्याकरण वेदका मुख है- एसा कहकर वेदके छौ अंगोमें इसको ह्रीं प्रमुखता दी गयी है । किसीने व्याकरण नहीं जाननेवालोंको अन्धा कहा है । ( अवैयाकरणस्त्वन्धःव्याकरण नहीं जाननेबाला अन्धा है ।) और यह कथन यथार्थ है । क्योंकि शब्दों के अन्तरंगका दर्शन व्याकरणदृष्टि से हीं सम्भव है । महान् तथा प्रख्यात ज्योतिर्वित् श्रीभास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि नामके प्रसिद्ध ग्रन्थमें - ' जो वेदका मुख समान व्याकरणशास्त्र जानता है, वह सरस्वतीका सदन ऐसे वेदको भी जानता है तो दूसरे शास्त्रों के जाननेका क्या कहना ? ( यो वेद वेदवदनं सदनं हि सम्यक् ब्राह्मयाः स वेदमपि वेद किमन्यशास्त्रम् १ ) इन शब्दोंसे व्याकरणकी महिमा गायी है । तथा आगे व्याकरण जानने पर हीं कोई दूसरे शास्त्रोंके श्रवणका अधिकार
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