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भारतीय संवतों का इतिहास
गया है, न कि "ऐतिहासिक घटनाओं से आरम्भ होने वाले संवत्" नामक अध्याय में ।
सृष्टि सम्वत्
सृष्टि के नाम पर ही यह सम्वत् सृष्टि सम्वत् के नाम से जाना जाता है । सृष्टि सम्वत् के अतिरिक्त यह कल्प सम्वत् व आर्य सम्वत् भी कहा जात है । सृष्टि सम्वत् का प्रचलन क्षेत्र हिन्दू धर्म साहित्य ही है । हिन्दू धर्म ग्रन्थों व पंचांगों पर इस सम्वत् का अंकन रहता है ।
सृष्टि सम्वत् की गणना हिन्दुओं ने एक बहुत बड़े समय से की है जिसमें सबसे छोटी इकाई दिन, माह अथवा वर्ष नहीं बल्कि पूरा एक युग है । अतः इस सम्वत् का वर्तमान युग क्या है, इस सम्बन्ध में एक उद्धरण निम्नवत् है : "ब्रह्मा के एक दिन में १४ मन्वन्तर होते हैं । ७१ चौकड़ी का एक मन्वन्तर होता है । आशय यह है कि १४ मन्वन्तर में से ६ मन्वन्तर (१ स्वायम्भुव:, २ स्वरोचिश, ३ उत्तम, ४ तामस, ५ रैवत, ६ चाक्षुव ) समाप्त होकर सातवां मन्वन्तर चल रहा है जिसकी २७ चौकड़ी पूर्ण, २८वीं चौकड़ी में ३ युग (सत्युग, त्रेता, द्वापर ) समाप्त होकर चौथा युग यह कलियुग चल रहा है, जो समाप्त होने पर २८ चौकड़ियों को पूर्ण करेगा । इसके पश्चात् वैवस्वत् मन्वन्तर में (७१-२८ = ) ४३ चौकड़ियां शेष रहेंगी"" ।
सृष्टि सम्वत् का सम्बन्ध हिन्दू धर्म से है अतः इसके आरम्भ के लिए हिन्दू धर्म प्रचारकों को ही उत्तरदायी समझना चाहिए, किसी विशिष्ट व्यक्ति को नहीं । सृष्टि की आयु के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों व विभिन्न सम्प्रदाय के धर्म ग्रन्थों से अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं । सृष्टि की आयु का निर्णय ही सृष्टि सम्वत् के आरम्भ समय का निर्णय है ।
सृष्टि उत्पत्ति का समय क्या है ? कितने वर्षों तक रहती है ? उसके क्या विभाग हैं ? आदि विषयों पर धर्म ग्रन्थों में विचार उपलब्ध होते हैं । यह माना जाता है कि चैत्य मास के पक्ष के प्रारम्भ में दिन, मास, वर्ष, युग आदि एक -साथ प्रारम्भ हुये । ऐसा विश्वास विद्यमान है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की । यजुर्वेद में आये एक श्लोक की महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदत्त व्याख्या में सृष्टि के निर्माण के मिलता है । "मनुष्य, पृथ्वी और जल में जो मोषधियां उत्पन्न होती हैं, जब वे तीन वर्ष पुरानी हो जायें तब उन्हें ग्रहण करके वैद्यक शास्त्र की विधि से सेवन करते हैं । वे सेवन की हुयी सब मर्म स्थलों में व्याप्त होकर रोगों को हटाकर
समय का संकेत
१. 'शुद्ध भारद्वाज पंचांग', मेरठ, १९८८-८६, पृ० १ ।