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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
१२१ समकालीन वंशों व परिस्थितियों को समझने में सहायता मिली है । गुप्त संवत् के नियमित प्रयोग से भारतीय इतिहास के तिथिक्रम निर्धारण में भी महत्वपूर्ण सहायता मिली है।
गप्त संवत में अंकित नियमित अभिलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल से प्राप्त होते हैं। इससे पूर्व के शासकों के अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं। गुप्त संवतों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख इस प्रकार हैं : (१) द्वितीय चन्द्रगुप्त का उदयगिरी गुहालेख-गुप्त संवत् ८२, ई० संवत् ४०१ (२) प्रथम कुमार गुप्त का दामोदर पुर ताम्र लेख- गुप्त संवत् १२४, ई० संवत् ४४४ (३) बुद्ध गुप्त का एरण स्तम्भ लेख-गुप्त संवत् १६५, ई० संवत् ४८४ (४) भानुगुप्तकालीन एरण का स्तम्भ अभिलेख-गुप्त संवत् १६१, ई० संवत ५१० । इनके अतिरिक्त और बहुत से अभिलेख हैं जिनकी तिथियां इसी प्रकार गुप्त संवत् में दी गयी हैं। बड़ी संख्या में प्राप्त ये गुप्त अभिलेख अपनी कुछ विशिष्टताएं रखते हैं : प्रथम, इन अभिलेखों में हूणों द्वारा अनुष्ठित अभिलेखों के अतिरिक्त अनवरत संवत् का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भिक वर्षों में गुप्त संवत् नाम संवत् के साथ नहीं लगा है। दूसरे, कभी-कभी नियमित संवत के साथ-साथ शासन करने वाले राजा का शासन वर्ष भी दिया गया है। तीसरे, तिथि अंकन के समय संवत्सर, ऋतु, पक्ष, तिथि तथा कभी-कभी नक्षत्र भी दिया गया है। चौथे, प्रशस्ति व समर्पण अभिलेखों में तिथि अंकन काव्यात्मक तथा सविस्तार है। किन्तु ताम्रपत्र लेखों में यह संक्षिप्त, सरल तथा गद्यमय है। पांचवें, भारतीय तिथि अंकन पद्धति के अन्य विवरणों के साथ हूण आक्रान्ता तोरमाण और मिहिरकुल अपने-अपने शासन संवत्सरों का प्रयोग किया करते थे। "स्कन्दगुप्त कालीन जूनागढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि गुप्त नरेश तिथियों की गणना अपने वंश संवत् में ही करते थे । इस अभिलेख में गुप्त संवत् को गुप्त प्रकाल कहा गया है । इसके अन्तर इस संवत् के नाम का पुनः उल्लेख कुमार गुप्त द्वितीय कालीन सारनाथ के बोद्ध प्रतिमा लेख में हुआ है।"१ गुप्त नरेशों के अपने अभिलेखों में अपने वंश के संवत् का ही प्रयोग किया इसका समर्थन डा. वासुदेव ने भी किया है । तथा ऐसा ही साक्ष्य राखाल दास वंधोपाध्याय भी देते हैं। अतः कहा जा सकता है
१. उदय नारायण राय, "गुप्त राजवंश तथा उसका युग", इलाहाबाद,
१९७७, पृ० ६२८ । २. वासुदेव उपाध्याय, "प्राचीन भारतीय अभिलेख", पटना, १९७०, (द्वितीय
संस्करण), पृ० ३०७ । ३. राखलदास बंधोपाध्याय, “गुप्त युग", वाराणसी, १६७०, पृ० १६७ ।