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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
प्रमुख आधार रहा हो तथा अधिकांश जनमानस जिसको सहर्ष स्वीकार करता हो ऐसे सम्वत् को राष्ट्रीय सम्वत् कह सकते हैं ।" "
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विक्रम सम्वत् के विषय में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि एक लम्बी समयावधि तक भारत के बड़े भू-भाग पर प्रचलित रहा । इसका सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण यही है कि आज भी उत्तर व दक्षिण में धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठानों की पूर्ति के लिये इसी सम्वत् को अपनाया जाता है और यह भी निश्चित है कि प्रशासनिक कार्यों में इसका प्रयोग हुआ क्योंकि यह साम्राज्य संस्थापक द्वारा विदेशियों से देश को मुक्त कराने के हर्ष के अवसर पर ही स्थापित किया गया । अतः नवनिर्मित राष्ट्र में इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया होगा । विक्रम सम्वत् के साथ राष्ट्रीय भावनाओं के जुड़े होने के तथ्य पर भी शंका नहीं की जा सकती क्योंकि संस्थापक स्वयं राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत था तथा किसी भी बाह्य शक्ति का दखल देश में सहन करना उसके लिये असम्भव था । स्वाभाविक रूप में प्रजा ने भी सम्वत् को राष्ट्र के प्रतीक रूप में ग्रहण किया होगा । विक्रम सम्वत् को साहित्य, परम्पराओं व लोककथाओं में पर्याप्त स्थान मिला इसके साथ ही अभिलेखों व मुद्राओं पर सम्वत् का अंकन इस सम्वत् को भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण तथ्य बना देता है जिसके अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तिथियों के अंकन तथा तिथि निर्धारण में सहायता मिलती है । सम्वत् का जन साधारण द्वारा सहर्ष स्वीकार किये जाने के प्रश्नों के सम्बन्ध में यह माना जा सकता है कि सम्वत् के आरम्भ के समय इसको जन-साधारण ने अवश्य ही स्वेच्छा से स्वीकार होगा । "विक्रमादित्य का अर्थ है सौर्य का पुत्र, यह उस व्यक्ति को दी जाती थी जो अपने साहस से बहादुर जाना जाता था । विक्रम सम्वत् चन्द्रमा की गति पर आधारित है अतः यह बिल्कुल सीधा व सही है । एक अशिक्षित किसान भी इससे अर्थ निकाल सकता है ।"" अतः यह गणना में भी सरल है । अपने मारम्भ के समय यह दैनिक, धार्मिक व व्यावहारिक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम होगा परन्तु धीरेधीरे भारत की बदली परिस्थितियों, अनेक विदेशी आक्रमणों, अनेक संवतों की स्थापना तथा इन सम्वतों को प्रशासन द्वारा स्वीकार किये जाने आदि तत्वों ने विक्रम सम्वत् की मान्यता को भी ठेस पहुंचाई। आज भारत में अनेक जाति,
१. अपर्णा शर्मा, "भारतीय राष्ट्रीय सम्वत्", शोधक, जयपुर, वोल्यूम, १५, पार्ट ए, क्रम संख्या ४३, १९८५, पृ० ३६ ।
२. अनिल माथुर, "द हिन्दुस्तान टाइम्स", दिल्ली, मार्च २६, १९८७, पृ० ६ ॥