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भारतीय संवतों का इतिहास से भी आभास होता है और जब सैल्यूकस भारत विजय की लालसा से यहां आया तब अन्य सांस्कृतिक तथ्यों के आदान-प्रदान के साथ ही काल गणना के तथ्यों का भी परिचय हिन्दुओं का विदेशियों से और विदेशियों का हिन्दुओं से हुआ हो तथा इसी अवसर पर भारतीयों का परिचय सैल्यूमीडियन सम्वत् से भी हुआ हो । सम्भवत: कुछ समय तक भारत के भी यवन प्रभावित प्रदेशों में इस सम्वत् का प्रचलन रहा हो। उलगबेग व कनिंघम जैसे विदेशी विद्वानों तथा ओझा व डा० डी० एस० त्रिवेद जैसे भारतीय विद्वानों के लेखन से सैल्यूसीडियन सम्वत् के विषय में जानकारी मिलती है।
शक तथा कुशाण वंशियों के खरोष्ठि लेखों में लिखे यूनानी महीनों के विषय में यह सम्भावना की जाती है कि क्योंकि यह विदेशी शैली में हैं, अतः यह किसी विदेशी सम्बत् से ही सम्बन्धित होंगे। "जो लोग विदेशी मसीडोनियन (यूनानी) महीने लिखते थे, वे सम्बत् भी विदेशी ही लिखते होंगे, चाहे वह सैल्यूकीडी (शताब्दियों के अंक सहित) पाथियन या कोई अन्य (शक) सम्वत् हो। यद्यपि अभी यह पूर्ण प्रमाणित नहीं है कि सैल्यूसीडियन सम्वत का प्रयोग भारत में किस रूप में हुआ लेकिन जैसाकि श्री ओझा के उपरोक्त कथन से विदित है : अभिलेखों के लिए सैल्यूसीडियन सम्वत् का भारत में प्रयोग हुआ, ऐसी सम्भावना है। क्योंकि यह सम्वत् भारतीयों के लिए विदेशी ही था और आक्रमणकारियों द्वारा भारत लाया गया था प्रतः जनमानस के लिए इसकी गणना पद्धति को समझना और इसे सम्मानपूर्वक ग्रहण करना सम्भव न हो सका। मात्र राजनैतिक सम्बन्धों को बल देने के लिए ही अल्पावधि में ही यह भारत में जाना गया होगा और चन्द्रगुप्त के शासन समाप्ति के साथ ही सैल्यूसीडियन सम्वत् का प्रभाव भी भारत में समाप्त हो गया होगा। भारत में इसके प्रयोग व आरम्भ के सम्बन्ध में निश्चित प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण भारत सरकार की कलैण्डर सुधार समिति की रिपोर्ट में तो इसे भारतीय संवतों की श्रेणी में भी नहीं रखा गया है।
सल्युसीडियन सम्वत् की गणना पद्धति मैसीडोनियन तथा अर्थ नियन पद्धति पर आधारित है। अर्थात् पूर्ण रूप से विदेशी पद्धति पर। इसमें १६ वर्षीय चक्र का प्रयोग हुआ है । "सेल्युसोडियन सम्वत् में अर्थनियन तथा मसीडोनियन पंचांगों के समान ही चन्द्र सौर पद्धति को ग्रहण किया गया है तथा १६ वर्षीय चक्र अर्थात् २३५ चन्द्रमासों को माना गया है ।"२ ।।
१. राय बहादुर पंडित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपि
माला", अजमेर, १९१८, पृ०६५ । २. एलेग्जेण्डर कनिंघम, "ए बुक ऑफ इण्डियन एराज", वाराणसी, १९७६,
पृ० ४० ।