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________________ ॥ ४६ ॥ कसिणावणित्ति, कृष्णावन्यामुपलचणार्वरारूपायां कुंकण सुराष्ट्र (मालवका दिसंबंधिन्यां यथा स्वपायामपि वृष्टौ किंचित् किंचित, बहुवृष्टौ तु बहुदुर्वादितृणानां सहकारादितरूणां प्रादेकुवाटादीनां शालिगोधूमादीनां धान्यानां च प्रायः सरसाना मेवोत्पत्तिः ॥ ३१ ॥ तथा केषुचिज्जीवेषु स्वल्पेऽपि गुरूपदेशे श्रुते बोधिपरिणतिः स्यात्, ततश्च शुद्धदर्शनदेश विर तिस चित्तपरिहारब्रह्मव्रतादीन् जावदार्थ्यादि निर्मदाफलत्वेन सरसानेव प्रतिपद्यतेऽनुतिष्टंति च ॥ ३२ ॥ कृष्णानूमी एटले उपन्न (एथी जेमां सारी रीते उत्तम प्रकारनं धान्य आदिक पाकी शके, एव कुंक, सुराष्ट्र तथा मालवा आदिकनी उमरारूप भूमी जावी; के जेमां जेम योगी वृष्टि होते ते पण कककक निपजे छे; अने घणी दृष्टि होते छते तो दुर्वा (धो) आदिक घासनी, आंबा आदिक वृक्षोनी, द्राक्ष तथा सेलमीना वामो आदिकनी तया चावल अघ आदिक धान्योनी, एम प्राये करीने रसयुक्त पदायनीज उत्पत्ति थाय छे ।। ३१ ।। तेम केटलाक जीवो प्रते योमो पण गुरुनो उपदेश सांजळवाय बोधि वीजनी प्राप्ति थाय छे; अने तेयी तेओ रसयुक्त एवा शुद्ध सम्यक्त्व, देशविरति, सचित्तनो परिहार तया ब्रह्मचर्यव्रत आदिकोने, जावनी दृढता आदिकवने करीने अंगीकार करे छे, तथा तेनुं अनुष्टान प करे ॥ ३२ ॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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