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________________ ॥४३॥ तत्र हि जलदजलं खलहलकारि दृश्यते जलदे स्थितेऽपि कियत्समयं वहति, परं न कापि जलपरिणतिः, जलव्यपगमे माईवयवत्वांकुरोत्पत्त्याद्यावजवनात् ॥ १३ ॥ एवं केचिज्जीवा गुरुवतं कयागाथाओकादि परोपदेशनाद्यर्थं स्वपांडित्यख्यापनार्थं वाऽवधारयंत्यधीयते च न तु तेषां हृदयेषु किमपि परिणमति ॥ १४ ॥ कषाय मिथ्यात्वादि तितिकात्मकमाईवपुण्यमनोरथाद्यन्नावातू, बहुविधकथ कनटपुस्तकवृंताकवा दिव्यासांगारमर्दकाचार्यादिवत् ॥ १५ ॥ इति ॥ तेवी प्रणालिकामां मेघनुं वरसादनुं खलहल करतुं पाणी देखाय बे; वरसाद रही गया बाद पए केटलीक वार सुधी ते वद्या करे बे; परंतु तेमां जळ वरी शकतुं नथी; अने एवी रीते जळ निकली गया बाद मां कोमळता, जीनास के अंकुराओनी उत्पत्ति आदिक होइ शकतं नयी ॥ १३ ॥ एवी रीते केटलाक जीवो गुरू कहेलां कया, गाथा तथा श्लोक आदिक परने उपदेश देवा माटे अथवा तो पोतानी पंडिताइ जणाववा माटे धारी राखे बे, तथा जणे जे, परंतु तेोना हृदयमां कं पण परिणमतुं नयी ॥ १४ ॥ केमके तेने कषाय, तथा मिथ्यात्व आदिकने तजवानी इच्छारूप कोमळता तथा पवित्र मनोरथ आदिको अव हाय ; कोनी पेठे ? तो के विविध प्रकारनी कथा कहेनार नट, पोयी माहेलां रंगणांनी जेवं वांचनार व्यास, तया अंगार मईक आचार्यनी पेठे जालवा ॥ १५ ॥ इति ॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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