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________________ ॥४०॥ ये चाऽविषयज्ञाऽविशेषज्ञाऽमतिमच्दून्यादयोऽप्ययोग्या ग्रंथांतरेषु प्रतिपादितास्तेऽप्येतेष्वेवांतर्नवंतीति न पृथगुक्ता इति ॥ १३ ॥ नानाविधानऽयोग्यानिति मत्वा धर्मत्वमुपदिशत ॥ योग्येष्वेव यतः स्यात् । शुखना लावारिविजयश्रीः ॥ ४ ॥ ॥ इति चतुर्थस्तरंगः ॥ ___ळी विषयने नहीं जाणनारा, विशेषने नहीं जाणनारा, निर्बुद्वि तथा शून्य आदिकोने बीजा ग्रंथोमां जे अयोग्य जणाव्या बे, तेश्रोनो पण आनी अंदरज समावेश थाय छे; माटे तेओने जूदा पामीने कह्या नथी; इति ॥ ५३॥ एवी रीते विविध प्रकारना अयोग्य मनुष्योने ध्यानमा लेऽने, योग्यो प्रत्येज धर्मनो उपदेश आपो ? के जेथी नाव शत्रुओनो विजय करनारी बद्दमी मुझन थाय ५४॥ ॥ एवी रीते चोयो तरंग समाप्त थयो.॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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