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________________ केचित्पुनर्मितीयरत्नवदंतरसाराः, स्वस्याऽनुपकारित्वात, जावना प्राग्वत् ; बहिस्तु साराः, सूत्रार्थप्रयादिन्तिः शिष्यवर्गस्य, विहारदेशनादिनिरन्यनव्यसत्वानां चेह परत्र च व्यतो लावतश्चोपकारकारित्वात् ॥ १२ ॥ एते च संविज्ञपाक्षिका झेयाः, तथा च तब्बक्षणं सुद्धं सुसाहुधम्मं । कहेइ निंद य नियमायारं ॥ सुतवस्सिाणपुरओ । होइ अ सव्वोमरायणिो ॥ १३ ॥ वंदर न य वं. दावश् । किकम्म कुण कारवे नेअ ॥ अत्तहा न वि दिख्खइ । दे सुसाहूण बोहेनं ॥ १४ ॥ श्री देशरत्नाकर बळी केटमाक गुरुको वीजा रत्ननी परे अंदरथी सारविनाना होय ने, केमके वेश्रो पोतानो उपकार करी शकता नत्री, ते संबंषि जानना पूर्वनी पेठे जाणवी; पळी तेश्रो बहारथी सारवाला होय || केमके यो सूत्रार्थनी वाचना आदिकरके करीने शिष्य पर्गनो तथा बिहार अने देशना श्रादिके करीने बीना जन्य प्राणीमोनो पा मोक अने परलोक संबंधि द्रव्ययी अने जापथी उपकार करी शके छ | |॥१२॥ अने तेवा संवेगलकी गुरुओ प्राणवा. बळी तेवा संवेगपकी सोनुं मका नीचे मुजब कई छ संवेगपती गुरुमो शुफ तथा उत्तम साधु धर्म कहे, तथा पोताना प्राधारने निदे, तथा उत्तम तपस्वी मुनिराज-all नी पासे सर्व प्रकारे नम्रता पाचरे ॥ १३ ॥ पोते अन्य साधुलो प्रत्ये पंदन करे, परंतु पोताने कोइ पास बंदा नहीं, all पोते कृतिकर्म करे, परंतु पीना फासे पालामलो कराये नहीं होता बाटे कोदने दीक्षा बारे नहीं पातु पोते. प्रति बोधीने 'जनन साधु पासे कोने दीका अपावे ॥१४॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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