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________________ अथ धर्मविषया सेव शुछिमधिकृत्य नाव्यते, तथाहि-॥ १८१ ॥ धर्मस्यांतः शुछिः किन्न सर्वप्रणीतत्वादिधर्मप्रवर्तकानां सम्यग् जीवाऽजीवादितत्वस्याऽवधारणपुरस्सरस्थूलेतरसकलजीवरक्षापरिणामसर्वशक्तितहिषयप्रयत्नशांतिमार्दवार्जवसत्यशोचब्रह्माकिंचन्यादिगुणमयत्वं च ॥ १७ ॥ बहिः शुधिः पुनर्बहिर्मुखजनरंजनशीतातपवर्षादिक्लेशसहननानावनवासादिकष्टषष्टाष्टमादितपस्क्रियादिः ॥ १३ ॥ ततश्च श्वपाकाजरणवत् कश्चन धर्मोऽतःशुधेरलावादतरसारो, बहिःशुधेरलावाद् बहिरप्यसारश्च, यथा वेदादिविहितो यशस्नानधेनुकन्यादानादिधर्मः ॥ १४ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर. हवे धर्म संबंधि शुछिने आश्रीने तेज चोनंगी देखा जे; ते कहे छे ॥ १७१ ॥ धर्मनी अंदरथी शुफि, एटले सर्वज्ञ प्रजुए रचेला धर्मने प्रवर्त्तावनाराअोनुं सम्यक् प्रकारे जीव अजीव आदिक तत्वोना अव धारण पूर्वक स्थूल तथा बादर एवा सर्व जीवोनां रक्षणनो परिणाम, तथा ते माटे पोतानी सर्व शक्तिथी प्रयत्न, || शांति, कोमळता, सरलता, सत्य, पवित्रपणं, ब्रह्मचय तथा परिग्रहरहितपणुं इत्यादिक गुणमयपणं होय , अर्थात् उपर वर्णवेना गुणो तेमां होय छे ॥ १२॥ बहारमी शुधि एटने बाह्य लोको जेयी खुश थाय, टाढ, तमका, तथा वरसाद आदिकना कष्टने सहन करवां, विविध प्रकारनां वनवास आदिक कष्ट, तेमज , अहम आदिकनी तपस्यानी क्रिया आदिक रूप जाणवी ॥१७३ ॥ हवे तेथी कोक धर्म चांमासना आनूषणनी पेठे अंदर शुद्ध न होवाची अंदरथी असार छे, तेम बहारथी पण शुछिनो अनाव होवाथी बहारथी पण सारविनानो होय छे; जेमके वेद आदिकोमा कहेलो यक, स्नान, गोदान तथा कन्यादान आदिकरूप धर्म तेवो ने ॥१४॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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