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________________ ३७६ शीलोपदेशमाला. स्त्रीजना पण ( किंपि के० ) कांइ पण (दुच्चरियं के०) डुराचरणने ( चि. ते ० ) चित्तमां ( चिंतय के० ) चिंतवन कर ॥ ७८ ॥ विशेषार्थ - हे मूर्ख प्राणी ! तुं जे स्त्रीउनो संग करवायी यश, धर्म छाने कुल हारी जाय ते, ते स्त्रीउंना पुराचरणनो व्हारा पोताना चित्तमां विचार कर. कja के रक्त, दुष्ट, मूढ, बंधाएलो ए चार उपदेशना शत्रु बे, माटे मध्यस्थपणे रहेतुं श्रर्थात् ते उपदेशने योग्य बेतेथी मध्यस्थपणुं राखीने क्षणमात्र विचार कर ॥ ७८ ॥ - वे स्त्रीउना दोषो कड़े बे. 'चपलाः कुटिलाः वंचन निरताः दुष्टधृष्टाः चैवलान कैडिलान, वर्चेण निरयान उधिद्वान ॥ तथा नीचगामिन्यः याः तास्वपि कः मोहः .तेंद नीं प्रगामिणीन जोन, तासिंपि को मोदो ॥ १ ॥ 9 शब्दार्थ - ( जार्ज के० ) जे स्त्रीर्ड (चवलाई के० ) चंचल खन्नाववाली (कुडिलाई ho) मायावी ( वंचण निरयाउँ के० ) परपुरुषना चितने प्रसन्न करवामां निश्चयवाली ( कुछ के० ) बीजाने दुःखमां पाडवामां चतुर (विधा के० ) निर्व्व (तह के० ) तेमज ( नीखगामि dho) कुपात्र, दास, नट विगेरेने विषे प्रीतिवाली होय बे; तो ( तासिंपि के ० ) तेवी स्त्रीउने विषे ( को मोहो के० ) मोद श्यो ? || ८ || विशेषार्थ - जे स्त्री चंचल स्वभाववाली, मायावी, परपुरुषनी चित्तने प्रसन्न करवामां तप्तर, बीजाउने दुःखमां पाडवामां चतुर अने लगारहित वली कुपात्र, दास, नट विगेरे हलकी जातना पुरुषोने विषे श्रा - सक्त होय छे. तेवी स्त्रीउने विषे मोह श्यो ? कयुं छे के उन्मार्गगामिनी सांड, रसौघनिचितांतरा ॥ स्त्री नदीवनित्येव, कूले कूले इव क्षणात् ॥ १ ॥ अर्थ- जेम श्रावला मार्गे (नींचेमार्गे) जनारी अने गाढ जलरूप रसना समूहथी जरपूर एवी नदी क्षणमात्रमां कांठे कांठे नेदाय बे, ते वला मार्गे (कुमार्गे) जनारी अने गाढ श्रृंगारादि जूदा जूदा रसना समूद्धी जरपूर मनवाली स्त्री क्षणमात्रमां नींच कूल कूलने विषे जे
SR No.023404
Book TitleShilopadesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala
Publication Year1900
Total Pages456
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size15 MB
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