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शीलोपदेशमाला. दिव्य प्रजावथी (पूर्वे बांधेला नीश्राणाना उदयथी) वरमाला एक उता पण पांचे पांडवोना कंठने विषे जूदी जूदी आरोपण करेली देखा. ते वखते "पुण्यवाली था राजकन्या सारं वरी! सारं वरी!!" एम आकाशवाणी थश्. “ हुं था एक कन्या पांचे जणाने शी रीते आपीश, अथवा जो थापीश तो सर्वेना हास्यपणाने पामीश, वली वरमाला एक उतां पांचेना कंठने विषे देखाय ने तेमज आकाशवाणीए पण आ वातनो श्रादर कस्यो ने तो हवे शुं थशे?" ए प्रकारनी चिंतारूप महा समुखमां बूडेलो श्रने योग्य कार्य करवामां मूढ बनी गएलो झुपद राजा जेटलामां क्षणमात्र विचार करवा लाग्यो तेटलामां आकाशमार्गथी चारण मुनिए श्रावी प्रौपदीना पूर्वजवना नीश्राणानी वात झुपद राजाने कही तेना संदेहने निवृत्त कस्यो. पडी हर्षित चित्तवाला पांमु अने उपद राजाए पांमवोनो अने प्रौपदीनो विवाहमहोत्सव कस्यो. ए प्रकारे मोद लक्ष्मीना परिणामरूप तीव्र तपना नीश्राणाथी उपद राजानी पुत्री सौपदी पांसुराजाना पांच पुत्रोनी प्रिया थ; माटे विषयनी श्वाने धिक्कार .
इति प्रौपदीनी कथा.
म्होटा एवाय पण परस्त्री गमन करनार पुरुष, हलकापणुं कहे .
अमरनरासुरविसहसपौरुषचरित्रोऽपि पररमणीरसिकः अमरनरअसुरविसरिस-पोरिसचरिवि पररमणिरेसि॥ विषमदशां संप्राप्तः लंकाधिपतिःअपि रंकश्व विसमंदसं संपत्तो, लंकादिवविरंकुवें ॥६६॥
शब्दार्थ- (श्रमर के०) देवता (नर के०) मनुष्य अने (असुर के०) जुवनपति, तेमना ( विसरिस के०) सरखा (पोरिसचरिवि के०) पुरुषार्थना चरित्रवालो एवोय पण अने ( पररमणिरसिउँ के० ) परस्त्रीने विषे प्रीतिवालो (लंकाहिवईवि के०) लंकानो अधिपति (रावण) पण (रंकुच के०) रंकनी पेठे (विसमदसं के ) विसमदशाने (संपत्तो के०) पाम्यो बे. ॥६५॥ विशेषार्थ- वीर पुरुषो पण परस्त्रीलंपट थवाथी विषम दशाने पा