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________________ रतिसुंदरीनी कथा. २४३ " ፡ नने ! हारुं वचन मने वज्रपातथी पण वधारे दारुण लाग्युं बे; तो पण ते हा श्रज्ञाने हुं फेरवीश नहीं. " दुःखरूप समुद्रमां कुबेली रतिसुंदरी महेंद्र सिंहना वचनरूप द्वीप (बेट) ने पामीने सूर्यना तापथी तपायमान थलो माणस जेम वृक्षनी बायाने पामीने हर्ष पामे तेम प्रसन्न इ. महेंद्र सिंह पण चार मास पी म्हाराज हाथमां बे. eat विचार करीने भूमिमां डाटी राखेला द्रव्यवाला गरीब माणसनी पेठे मनमां हर्ष पामवा लाग्यो. पठी निरंतर यांबील ने उपवास विगेरे तपना कृत्यथी पोताना शरीरनुं शोषण करती तथा त्याग करया बे स्नान, अंगराग अने आभूषण जेणे एवी ते रतिसुंदरी शिथील स्तनवाली, ग्लानी पामेला मुखकमलवाली, सुकाइ गएला रुधिर, मांस अने नासिकाना strateवाली तथा कठोर केशवाली थइ गए. एक दिवस मेलथी श्याम बनी गयेली, कार्यने विषे जयंकर ने हि मथी बली गयेली कमलीनीना सरखी ते रतिसुंदरीने जोइने राजा महेंद्रसिंहे पूj. " हे मृगादि ! त्हारी यावी व्यवस्था केम यइ गइ ? शुं द्वारा शरीरने विषे कंश रोग उत्पन्न थयो छे के चित्तने विषे कंपण दुःख उत्पन्न थयुं बे ?” रतिसुंदरीए उत्तर प्यो. " हे देव ! में श्रा फलरहित एवं व्रत वैराग्यश्री धारण करयुं बे; एथीज फागण मासना वननी पेठे म्हारुं शरीर सुकाइ गयुं बे. हे महाराज ! हवे म्हारे जेम ते करीने या व्रत पूर्ण करवुं बे; कारण के व्रतनो जंग करवाथी नरक गति प्राप्त था . "" महेंद्र सिंहे फरीथी पूब्युं. “तने श्रावो वैराग्यनो हेतु शाथी उत्पन्न यो के, जेने लीधे तें पुष्पनी मालानी पेठे जोगववा योग्य या शरीर तप रूप निमां फेंकी दीधुं ? " पतिव्रता रतिसुंदरीए कयुं. " हे राजेंद्र ! प्रथम शेकडो दोषवालुं तेमां पण एक वैराग्यने बंधन करनारुं या म्हारुं शरीर जर्ज के, जेना नवद्वारमांथी स्नायु, रुधिर, मांस, चरबी, हाडकां, पित्त, विष्ठा, मूत्र अने श्लेष्मने लीधे दुर्गंध निकले बे. वली ते शरीर वारंवार स्नान, सुगंधी चंदन ने धूप विगेरेथी संस्कार करया बता पण पोतानी डुगंधताने बोडतुं नथी. तेमज ए शरीरनी अंदर अने बहार विविध प्रकारना उपचार करीये तोपण खल पुरुषने करेला
SR No.023404
Book TitleShilopadesh Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidyashala
Publication Year1900
Total Pages456
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size15 MB
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