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नर्मदासुंदरीनी कथा.
तेनो पतिथी वियोग थशे. " मुनिनां श्रवां वचन सांजली अत्यंत खेद पामेली नर्मदासुंदरी तत्काल नींचे उतरीने साधुना चरणमां पडी अने विनंती करवा लागी के, “ हे मुनि ! निर्जाग्य श्रने दुष्ट आत्मावाली हुं आपना श्रापथी बली मूइ बुं; कारण के जे हुं जैनधर्मिणी बता में आपनो या प्रकारे अपराध कस्यो छे. महात्मा तो विश्वने वहाला अने दयारसना समुद्ररूप होय बे, माटे हे प्रजो ! म्हारा था अपराधने क्षमा करो. वली समान दृष्टिवाला मुनि शत्रु उपर क्रोध पामता नथी, स्वजनो उपर मोह पामता नथी छाने पोतानो अपराध करनारा उपर क्रोध पामीने तेने श्राप पण आपता नथी. अपुष्ट जाववाली म्हारे विषे आप क्षमा करो; कारण बेदातुं एवंय पण चंदननुं वृक्ष सुगंधिपणाने आपे बे. "
सुनिए कयुं, " हे श्राविका ! सांजल्य. हे वत्से ! तुं वृथा खेद न पाम्य. कारण के जैन साधु क्यारे पण आप आपता नथी ने निग्रह पण करता नथी. में तने श्राप थाप्यो नयी; परंतु व्हारुं जविष्य कहेलुं बे. हे ! त्हारो कर्मना दोषथीज पतिनी साथे वियोग थवानो सृजेलो बे; तो पढी पोताना पूर्वना कर्मने जोगवतो एवो कयो विद्वान् पुरुष खेद पामे ?" या प्रमाणे नर्मदासुंदरीने प्रबोधीने अने तेने शांत करीने सुनिए त्यांथी विहार कस्यो पढी निरंतर निराबाध एवा जिनधर्मनुं पालन करती एवी नर्मदासुंदरी ए केटलोक काल सुखे करीने निर्गमन कस्यो.
एक दिवस महेश्वरदत्त वेडेपार करवानी इछाथी अनेक जातना वासो लइ म्लेछ द्वीपने विषे जवा निकल्यो. तेणे पोतानी प्रिया नर्मदासुंदरीने घणा श्राग्रहथी घरे रहेवानुं कयुं, पण ते तो पोताना कदायदी वायुनी साथै पत्रपंक्तिनी पेठे महेश्वरदत्तनी साथे जवा तैयार
इ. पढी ते बढ़ाणमां बेसी जेटलामां मध्यसमुद्रमां श्राव्या; तेटलामां ade मध्यरात्रीने वखते कोइनुं गायन सांजल्युं पढी स्वरना लक्ष्ण जाणवामां चतुर एवी नर्मदासुंदरीए मध्यरात्रीए यता एवा ते गायनने सांजलीने पोताना पतिने कधुं. " हे स्वामिन्! जे पुरुष मधुर वाणीथी गायन करे बे; ते श्याम अंगवालो, पुष्ट हाथ पग उपर वालवालो, बलवालो, गुह्यस्थान उपर मशवालो, रक्त नेत्रवालो, जमणा अंग उपर
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