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वंकचूलनी कथा.
११ के चारित्र अंगीकार कलुं अने केटलाके श्रावक धर्म आदस्यो. व्यंतरी अजयाए पण ते वखते श्रावक धर्म अंगीकार कस्यो भने देवदत्ता वेश्या तथा पंडिता पण बोध पामी. ए प्रकारे सुदर्शन मुनि पृथ्वी उपर विहार करता बता अनेक जव्य जीवोने संसारसमुप्रथी तारी अने शीलव्रतना अतुल एवा प्रजावने स्थापन करी अंते मोदलक्ष्मीने पाम्या.
॥शति सुदर्शन शेउनी कथा समाप्ता॥
हवे चोर पण शील पालवाथी सुगतिर्नु पात्र थाय , ते कहे . यः अन्यायरतोऽपि एव नृपनार्याप्रार्थितोऽपि नापि क्षुब्धः जो अन्नायरवि हुँ, निवनजापबिनवि नवि ख़ुशे॥ शीलनियमानुकूलः सः वंकचूलः गृही जयतु . सीलनियमाणुकूलो, सँवंकचूलो गिदी जयन॥४६॥
शब्दार्थ-(जो के०) जे (अन्नायरवि के ) अन्यायने विषे प्रीतिवालो एवोय पण अने (निवनजा के०) राजानी स्त्रीए (पबिनवि के०) कामने माटे प्रार्थना करेलो एवो पण (हु के०) निश्च( नवि खुको के) न ज दोन पाम्यो. (स के०) ते (सीलनियमाणुकूलो के०) शीलव्रतना नियमने अनुसरीने रहेलो एवो तथा (गिही के०) गृहस्थाश्रामी एवो (वंकचूलो के०) वंकचूल ( जय के०) जयवंतो वत्तों. ॥ ४५ ॥
विशेषार्थ- जे चोरी करवामां प्रीतिवालो, चोरी करवा माटे राजाना घरमा पेठेलो अने राजाथी रीसाइ गएली पट्टराणीए विषयने माटे प्रार्थना करेलो उता पण ब्रष्ट थयो नहि तेज शील पालवामां केड बांधीने तैयार थएलो, गृहस्थाश्रमी एवो वंकचूल नामनो चोर था जगत्मां जयवंतो वत्तॊ. ॥४५॥
, वंकचूलनी कथा, श्रा जरत क्षेत्रमा समृजिवाला पुरुषोने पुण्यबीजना अंकुरनी पेठे सेवन करवा योग्य रथनूपुर नामर्नु नगर डे. त्यां जेना प्रतापरूप सूर्यनी आगल सूर्य पण अमिना तणखा शरखो देखातो हतो एवो भने शत्रु