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( ३०२ )
सीहु. निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख खमागु ॥
ध्रुवमो ध्रुवुः ।
चञ्चलु जीवि ध्रुवु मरणु पित्र रूसिजइ काई । होसई दिहा रूसणा दिव्वहूं वरिस-सयाई ॥
मो मं । मं धणि करहि विसाउ || प्रायोग्रहणात् ।
माणि पणट्ठइ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुजण कर पल्लवेहिं दंसिजन्तु भमिज ॥ लोणु विलिजद्द पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु ॥ बालिउ गलइ सुझुम्पा गोरी तिम्मइ अज्जु ॥ मनाको मणाउं ॥
विहवि पणटूट्ठइ वङ्कुडङ रिद्धिर्हि जण सामन्नु । fift मणा सह पिअहो ससि अणुहरइ न अन्नु ॥
||४१९॥ किलाथवा दिवा-सह-नहेः किराहवर दिवे सहुं नाहिं ॥ अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति ॥
अपभ्रंशभां किलने किर, अथबाने अहवइ, दिवाने दिवे, सहने सहुं भने नहिने नाहिं मेवा महेश थाय छे. किलस्य किरः ।
किर खाइ न पिभइ न विद्दवद्द धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवणु न जाणइ जह जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ ||
अथवाहबद्द | अहवह न सुवंसहं एह खोडि || प्रायोधिकारात् ।