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श्री पार्श्वनाथ
प्रणाम करके नम्रता से पूछा - " पिताजी ! ऐसा कौनसा शत्रु ह, कि जिसके लिये आपके समान पराक्रमी को इतनी तयारी करनी पड़ती है ? आपसे अधिक या आपके समान शक्तिवाला कोई भी मनुष्य मुझे नहीं दिखाई देता, फिर इस तयारी का कारण क्या है ? " । पिताजी ने पुरुषोत्तम की तरफ इशारा करके कहा - " इस मनुष्य के समाचार लाने पर, प्रसेनजित् राजा को, राजा यवन से बचाने जाने की आवश्यकता पड़ी है " ।
पार्श्वकुमार ने यह सुनकर कहा - " पिताजी ! देव तथा दानवों की भी यह शक्ति नहीं है, कि वे युद्ध में आपके सामने टिक सकें। फिर इस यवनराजा की क्या शक्ति है, कि वह आपके सामने खड़ा रह सके ? किन्तु उसके सामने जाने की आपको आवश्यकता नहीं है। अकेला मैं ही वहाँ चला जाऊँगा और दूसरे किसी को नहीं, केवल उसे स्वयं को ही कुछ दण्ड दूँगा । राजा अश्वसेन बोले - " बेटा ! कठिनाइयों से भरी हुई इस लड़ाई में तुम्हें भेजना मुझे उचित नहीं प्रतीत होता । यद्यपि, मैं यह जानता हूँ, कि मेरे पुत्र में अपार - बल किन्तु मैं इसी में प्रसन्न हूँ, कि वे घर में रहकर आनन्दपूर्वक दिन बितावें । " पिताजी का यह उत्तर सुनकर पार्श्वकुमार बोले - " पिताजी ! युद्ध करना मेरे लिये बड़ी प्रसन्नता तथा विनोद के समान ही है । उसमें, मुझे ज़रा भी