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पेथड़कुमार
यह यात्रा करके, पेथड़कुमार वापस माँडव लौट आये। वहाँ उन्होंने अपने जाति-भाइयों की बड़ी मदद की। अनेकों लेखक बिठाकर, बहुत-सी पुस्तकें भी लिखवाई, जिनसे बड़ेबड़े सात-भण्डार भर गये।
अब पेथडकुमार अपना अधिकांश समय प्रभु-भक्ति में ही बिताने लगे । वे, सबेरे-शाम प्रतिक्रमण करते और तीनबार ईश्वरपूजा करते । यों करते-करते, उन्हें यह जान पड़ा कि अब मेरा मरणकाल नज़दीक है, अतः उन्होंने तीर्थङ्करदेव का ध्यान धर लिया और शान्तिपूर्वक अपनी आयु पूर्ण की।
सारा माँडवगढ़, मंत्रीश्वर के इस मरण से दुःखी हो उठा । झाँझणकुमार के दुःख की तो कोई सीमा ही न थी। इस शोक को दूर करने के लिये, उन्होंने शत्रुजय का एक महान-संघ निकाला । इस संघ में बारह-हजार गाड़िये और पचीस-हजार पीठ पर सामान ले चलनेवाले लोग थे । बहुत से मुनि-महात्मा भी इस संघ में थे। संघ के चौको-पहरे के लिये ही दो-हजार सिपाही साथ थे।