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जम्बूस्वामी दीक्षा का बड़ा-भारी उत्सव मनाया गया। उस उत्सव में, जम्बूकुमार ने पाँच-सौ सत्ताइस मनुष्यों के साथ दीक्षा ली। ऐसे-ऐसे महोत्सव, पृथ्वी-तल पर बहुत ही थोड़े हुए होंगे।
जम्बूकुमार, सोलह-वर्ष की अवस्था में सुधर्मास्वामी के शिष्य हुए और संयम तथा तप से अपने मन, वचन तथा काया को पवित्र करने लगे। गुरु के पास, उन्होंने शाखों का अभ्यास किया और थोड़े ही समय में तो वे सारे शास्त्रों में पारंगत होगये।
सुधर्मास्वामी के निर्वाण पधारने पर, वे उनकी गादी पर विराजे। इस तरह, जम्बूस्वामी सारे जैन-संघ के अगुआ होगये। उन्होंने, प्रभु-महावीर के उपदेशों का खूब प्रचार किया, तप और त्याग का वातावरण उत्पन्न किया, तथा अनेकों का कल्याण कर दिया।
जम्बूस्वामी को, अपना जीवन पूर्ण-पवित्र बना लेने पर, केवलज्ञान हो गया और कितने ही वर्षों के पश्चात वे निर्वाण को प्राप्त होगये।।
कहा जाता है, कि जम्बूस्वामी इस काल में अन्तिम केवलज्ञानी हुए हैं। इनके बाद,फिर कोई केवलज्ञानी नहीं हुआ।
धन्य है, अपार ऋद्धि-सिद्धि तथा भोग-विलासों को लात मारकर, सच्चे-सन्त होनेवाले जम्बूस्वामी को!
॥ ॐ शान्तिः ॥