________________
श्री ऋषभदेव
१९
सोचकर उन्होंने राजमहल में एक दानशाला खोली और एक वर्ष तक सोने की मुहरों का दान दिया ।
फिर, श्री ऋषभदेवजी ने, अपने सभी पुत्रों को भिन्न-भिन्न देशों का राज्य सौंप दिया और स्वयं, सारे वैभव को छोड़कर, बिलकुल - सादा जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ किया। बिलकुल सादा - जीवन व्यतीत करनेवाले को साधु कहा जाता है। सारांश यह, कि श्री ऋषभदेवजी साधु हो गये ।
शरीर पर एक ही कपड़ा, सिर और पैर नंगे; न जाड़े का डर, न गर्मी की चिन्ता । जब देखो, तब ध्यानमग्न ही रहते । भिक्षा लेने जाते, किन्तु लोग नहीं जानते थे, कि उन्हें कौन-सी चीज़ दी - जा सकती है ।
कोई कहता - " ये गहने लीजिये " । कोई कहता- “ यह कन्या ग्रहण कीजिये " । किन्तु, ये चीजें साधु के लिये किस काम की थीं ? इस तरह, एक वर्ष व्यतीत होगया और श्री ऋषभदेवजी घूमते-घूमते हस्तिनापुर पहुँचे ।
मनुष्यों के झुण्ड के झुण्ड, इन महात्मा के दर्शन करने आते और अपने घर भोजन करने के लिये आने का निमन्त्रण देते । किन्तु, श्री ऋषभदेवजी उन लोगों की बातों का कोई उत्तर न देते थे ।