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यों करते-करते गले तक ईंट-पत्थर का ढेर-सा होगया, जिससे उनका श्वास भी रुकने लगा। अत: महास्मा दृढमहारी ने अपना ध्यान पूरा किया और दूसरे दरवाजे पर जाकर ध्यान धरा । वहां भी लोग नाना प्रकार के कष्ट देते थे। इस तरह उन्होंने ६ महीने तक दुःख सहे, किन्तु अपने निश्चय से ज़रा भी न डिगे।
उनके हृदय में, क्षमा बढ़ती ही गई। प्रेम की भी वृद्धि ही होती गई और अन्त में वे बढ़ते-बढ़ते पूर्ण-पवित्र होगये।
लोगों की समझ में अब यह आगया कि दृढ़प्रहारी शैतान नहीं रहे, वे पूरे सन्त हो गये हैं । अतः उनके चरणों में पड़ने लगे और उनके पिछले सारे दोष भूल गये।
अब महात्मा दृढ़प्रहारी एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करने लगे । उन्होंने बहुत से लोगों को उपदेश दिया और बहुतों के जीवन सुधार दिये । अन्त में वे धर्म-ध्यानपूर्वक पवित्र-जीवन व्यतीत करते हुए, निर्वाणपद को प्राप्त हुए।
धन्य है सहनशील दृढ़प्रहारी को! धन्य है महात्मा दृढ़प्रहारी को !