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आकाश को छूने के लिए उडती ध्वजा की शोभा को देखकर, महाराज पूछते है, 'कौन भाग्यवान माता पिता है? जिसके संतान ने ऐसे सुंदर, मनोहर जिनालयों की हारमाला का सर्जन किया? तब मंत्री कहता है, 'स्वामी! आप! पूज्यश्री के माता-पिता का ही यह सौभाग्य है जिससे आप जैसे महापुण्यशाली के प्रताप से यह अप्रतिम सर्जन हुआ है। आश्चर्यचकित महाराज पलभर के लिए मंत्रमुग्ध बनकर इस बात का रहस्य मंत्री को पूछते हैं तब मंत्री कहता है, 'हे स्वामी ! आपके पुण्यप्रभाव से ही यह अप्रतिम सर्जन हुआ है और आपके पिता जी की स्मृति में ऐसे देदिप्यमान जिनालयों का सर्जन किया है। सोरठ देश की धन्यधरा की तीन तीन साल की आमदनी उस जिनालय के नवनिर्माण में खर्च हुई है जिसके प्रभाव से ये मंदिर मन को मोहित कर रहे है। आप कृपालु ही सोरठ देश के स्वामी हो इसलिए आपके पिता कर्णदेव और माता मीनलदेव धन्य बने हैं। ‘कर्णप्रासाद' नामक इस जिनालय से गिरनार की शोभा में वृद्धि हुई है, जो आपके पिताजी की स्मृति को अविस्मरणीय बनाने में समर्थ है। फिर भी आप स्वामी को, सोरठ की 3 साल की आमदनी राजभंडार में जमा करवानी हो, तो एक एक पाई के साथ रकम भंडार में जमा करने के लिए, नजदीक के वणथली गाँव का श्रावक भीमा साथरिया, अकेला ही पूरी रकम भरने के लिए तैयार है और अगर जिर्णोद्धार का उत्कृष्ट लाभ लेकर आत्मभंडार में पुण्य जमा करवाना हो तो यह विकल्प भी आपके लिए खुला है।'
सज्जनमंत्री के इन शब्दों को सुनकर महाराज सिद्धराज मंत्री पर बहुत खुश होते है और कहते हैं, 'ऐसे मनोरम्य सुंदर जिनालयों का महामूल्यवान लाभ मिलता हो तो मुझे उन तीन साल की रकम की कोई चिंता नही। मंत्रीवर! आपने तो कमाल कर दिया। आपकी बुद्धि, कार्यपद्धति और वफादारी के लिए मेरे हृदय में बहुत गौरव हो रहा है। आपके लिए
गिरनार तीर्थ
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