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रैवतगिरि-कल्प संक्षेप
श्री नेमिनाथ जिनेश्वर को मस्तक नमाकर-नमस्कार कर, रैवतगिरिराज-गिरनार का कल्प जैसा श्री वज्रस्वामी के शिष्य और पादलिप्तसूरि ने कहा है उसी का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है
छत्रशिला के समीप शिलासन पर भगवान श्री नेमिनाथ ने दीक्षा ली, सहस्राम्रवन में उन्हें केवलज्ञान हुआ, लक्खाराम में देशना दी और 'अवलोकन' में उच्च शिखर पर निर्वाण पाये। रैवतगिरि की मेखला में श्रीकृष्ण ने वहाँ तीन कल्याणक के स्वर्णरत्नमय प्रतिमालंकृत जीवित स्वामी के तीन चैत्य कराके अम्बिका देवी की प्रतिमा भी कराई। इन्द्र ने भी वज्र से पहाड़ को कोर के स्वर्ण बलानक और रौप्यमय चैत्य, रत्नमय वर्ण और प्रमाणोपेत प्रतिमा, अम्बा शिखर पर रंगमण्डप, अवलोकन शिखर, बालानक मण्डप में शाम्ब ने इतने कराये। श्री नेमिनाथ के मुख से निर्वाण स्थान ज्ञातकर निर्वाण के पश्चात् श्रीकृष्ण ने सिद्धविनायक प्रतिहार की प्रतिमा स्थापित थी। तथा दामोदर के अनुरूप १. कालमेघ, २. मेघनाद, ३. गिरिविदारण, ४. कपाट, ५. सिंहनाद, ६. खोड़िया और ७. रैवत तीव्रतप क्रीडन से क्षेत्रपाल उत्पन्न हुए। इनमें मेघनाद सम्यग्दृष्टि
और भगवान नेमिनाथ का चरणभक्त है। गिरिविदारण ने कंचन बालानक में पाँच उद्धार विकुर्वण किये।
वर्तमान अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र की भव्य भूमि पर बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान के निर्वाण के 2000 वर्ष व्यतीत हो चुके
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त्रितीर्थी