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बाहुबलि के तीन भुवन में सबसे श्रेष्ठ बल का वर्णन होता सुवेग के सुनने में आया। उसने बाहुबलि के अतिरिक्त जगत में किसी राजा को नहीं जानने वाले और लक्ष्मी से कुबेर के समान साथ ही शरीर से महाशोभायमान लोगों को देखा। और जैसे पर्वत के शिखर हों वैसी धान्य की राशि तथा सर्वत्र फल-फूल वाले सुंदर वृक्षों को देखकर उस सुवेग का हृदय चमत्कृत हुआ। वेग से बहुलिदेश के तीन लाख ग्रामों को अनुक्रम से लांघ कर दूत सुवेग बाहुबलि की नगरी तक्षशिला में आ पहुंचा। वहाँ उसे सिंहासन पर बैठे बाहुबलि दिखाई दिए। वहाँ हजारों मुकुटबद्ध तेजस्वी राजा लोग मेरूपर्वत के झूमते शिखरों के समान उनकी उपासना करते थे। किरणों से सूर्य के समान, वह उत्तम श्रृंगार युक्त और मानो मूर्तिमान उत्साह हों ऐसे कुमारों से वीर-व्रत की तरह घिरा हुआ था। रत्नमय दीवार के मणिमय स्तम्भों में प्रतिबिम्ब पड़ने से, एक शरीर में बल नहीं समाने से मानो मंत्रियों और सेना के समूह से अनेक रूपवाला हो गया हो, वैसा वह बाहुबलि अद्भुत दिखाई देता हुआ राजसभा में बैठा था।
ऐसे अपूर्व क्षात्र तेज वाले बाहुबलि को देख कर पहले से ही क्षोभ प्राप्त सुवेग ने आकृति संकोच कर उन्हें प्रणाम किया। फिर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाकर, उनके मुख की ओर दृष्टि डाली। तब बाहुबलि ने ही इंगित कर उसे आसन बताया और उनके बताए आसन पर सुवेग बैठा। फिर प्रतिध्वनि से सभा की दीवारों को शब्दायमान करते हुए बाहुबलि गंभीर वाणी में सुवेग से बोले, 'हे दूत! मेरे पिता समान पूज्य, ऐसे आर्य भरत सकुशल हैं? हमारी कुल नगरी अयोध्या में सर्वत्र अत्यन्त शांति तो है? पिताश्री द्वारा चिरकाल तक लालन-पालन की हुई समस्त प्रजा तो कुशल से है? आर्य भरत छः खण्ड भरत की विजय करने में अखण्डित तो रहे हैं? चौरासी लाख रथ, हाथी और घोडे दिग्विजय में अषधित रहे हैं ना? सब राजा निर्विघ्न कुशलतापूर्वक हैं ना? और पृथ्वी पर अन्य किसी
शत्रुञ्जय तीर्थ