________________
नान्दि, तापस, पद्म, उदय, नन्दिवर्द्धन, मुक्तिनिलय, अर्बुद, सुर, महा, महायश, महाबल, महानन्द, महाश्र, महातीर्थ, महापीठ, जयन्त, आनन्द, श्रीपद, श्रेयपद, भव्य, प्रभुपद, अजरामर, हस्तिसेन, माल्यवन्त, विभास, विशाल, हेम, श्रेष्ठ, उज्जवल, यञ्च, आलम्बन, प्रत्यक्ष, सिद्धपद, वैजयन्त, सिद्धक्षेत्र, सुरक्षेत्र, सुरप्रिय, पर्वतेन्द्र, विमलादि, पुण्यराशि, दृढ़शक्ति, अनन्तशक्ति, अकर्मक, अकलंक, मुक्तिगेह, पृथ्वीपीठ, भद्रपीठ, पातालमुख, सर्वदाभद्राय, सिद्धिराज, सुतीर्थराज, सहस्त्राभ्य, सहस्त्रप्रश्री, सारश्वत, भागीरथ, अष्टोत्तर, नगेश, शतपत्रक, कोटिनिवास, कर्पदिवास, विजयानन्द, विश्वानन्द, सहजानन्द, जयानन्द, श्रुतानन्द, गुणकन्द, अभयकन्द, भद्रंकर, क्षेमंकर, शिवंकर, दुःखहर, यशोधर, मेरुमहिधर, कर्मसुदन, कर्मक्षय, जगतारण, भवतारण, राजशेखर, केवलदायक, इन्द्रप्रकाश, महोदय, कयन्तु, प्रीतिमण्डन, ज्योतिस्वरूप, विजयभद्र, विलासभद्र, अमरकेतु, आत्मसिद्धि, क्षितिमंडलमंडन, सिद्धाचल, सर्वार्थसिद्धि इत्यादि। ये नाम श्री सुधर्मा गणधर द्वारा रचित महाकल्याणकारी महाकल्प में से लिए गए हैं। ये नाम जो भी प्रात:काल के समय बोले या सुने उसकी समस्त विपत्तियों का क्षय होता है। यह सिद्धिगिरि सभी तीर्थों में उत्तम तीर्थ है, सब पर्वतों में उत्तम पर्वत है और सब क्षेत्रों में उत्तम क्षेत्र है।
इस अवसर्पिणी काल के आदि में मोक्षदायक प्रथम तीर्थ यह शलुंजय ही था, अन्य तीर्थ तो श्री शतुंजय तीर्थ के बाद में हुए हैं। पन्द्रह कर्मभूमियों में नाना प्रकार के अनेक तीर्थ हैं, उन सब में इस शखंजय के समान पापनाशक कोई अन्य तीर्थ नहीं है।
पहले आरे में यह सिद्धगिरि तीर्थ अस्सी योजन विस्तार वाला था। दूसरे आरे में सत्तर योजन, तीसरे आरे में साठ योजन और चौथे आरे में पचास योजन विस्तार वाला था। इसके पश्चात् पांचवें आरे में 22 योजन
और अंतिम छठे आरे में सात हाथ प्रमाण ही रह जाएगा। इस गिरिराज के निम्न नामों वाले 21 मुख्य शिखर कहे जाते हैं -- शतुंजय, रैवतगिरि,
त्रितीर्थी