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महिमा का पात्र, अतिशय पवित्र और अत्यंत कल्याणकर, पर्वतों में इन्द्र के समान, यह पुंडरीक गिरिराज सदा जय पाता रहेगा । सब इन्द्रियों के संयमपूर्वक रोध से जिनका विवेक जाग्रत हुआ है ऐसे, अपने मन में जिन्होंने सदा वीतराग को धारण किया है ऐसे और जिन्होंने सैंकडों भवों में पुण्य किया हो वैसे राजाओं को भी यदि शुद्ध मन-वचन-काया से इस पुंडरीक गिरि की सेवा मात्र एक बार भी मिल सके तो वे धन्य हो जाते हैं। एक क्षणभर भी यदि इस गिरिराज की छाया में रह कर जो अति दूर जाता है, वह वहाँ भी शत्रुजय को नहीं प्राप्त करने वाले लोगों में पुण्य से सेवा के योग्य होता है और वह कभी भी जिनेश्वर को छोड दूसरे को नहीं भजता; यह निःशंक बात है। राग-द्वेषरू प वृक्षों में अग्नि जैसा और समता को भजने वाला हो कर इस सिद्धाचल महातीर्थ का आश्रय ले, कि जिससे तू अपने सब निबिड कर्मों को खपा सकता है। अमंद बोध को जाग्रत करने वाला प्राणी जब तक सिद्धाचल महातीर्थ पर जा कर श्री आदिनाथ प्रभु का ध्यान नहीं धरता, तब तक ही पृथ्वी पर घूमता पापरूपी सुभट उसे विकट भय प्रदान करता है और तब तक ही सैंकडों शाखा से दुर्गम, ऐसा यह संसार उसमें अविरत रूप से प्रसार पाता है। मूल से उन्मूलन करने के लिए इन्द्रियों का निरोध कर के संयमी लोग तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय गिरिराज पर रह कर भगवान् श्री आदिनाथ प्रभु की सेवा करते हैं । इस गिरिराज के शिखर, गुफाएं, तालाब, वन, जलकुंड, सरिताएं, पाषाण, मृत्तिका और अन्य जो कुछ भी वहाँ स्थित है, वह अचेतन होते हुए भी महानिबिड पाप का क्षय करता है ।
सौराष्ट्र का मुकुट रूप है यह शजय पर्वत। वह स्मरण करने मात्र से ही अनेक पापों का नाश करने वाला है। इस तीर्थ के १०८ नाम हैं, जो निम्नानुसार हैं- शतुंजय, बाहुबली, मरुदेवा, पुंडरीक, रैवत, शाश्वत, पुष्पदंत, कैलाश, कंचन, कनक, ढंक, लोहित्य, सद्भद्र, तालध्वज, कदमगिरि, स्वर्ग,
शत्रुञ्जय तीर्थ