________________
स्तुति द्वारा महिमागान
आराध्य के गुणों की प्रशंसा करना स्तुति है। स्तुति स्तोत्रों से होती है। स्तोत्र संस्तव हैं और 'संस्तवनम् संस्तवः' अर्थात् सम्यक प्रकार से स्तवन करना संस्तव है।
_ 'उवसग्गहरपासं', पहला ऐतिहासिक स्तोत्र है जिसके पांचों रूप यानी ५ गाथा, ७ गाथा, १० गाथा, ११ गाथा और २७ गाथाएं है। इसमें तीर्थंकर के साथ इसके शासन देवता की लक्षणा से स्तुति है। इसमें पार्श्वप्रभू से सम्यक्रत्न रूप बोधि और अजर-अमर पद की कामना है और कर्ममल से रहित पार्श्वनाथ को विषधर के विष के विनाशक और कल्याणकारक कहा गया है। जो मनुष्य इस स्तोत्र को धारण करता है उसके ग्रहों के दुष्प्रभाव, रोग और ज्वर शान्त होते हैं और जो पार्श्व प्रभू को प्रणति-निवेदन करता है, उसके दुःख संताप मिटते हैं। इस स्तोत्र को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार से कल्याणकारक बताया गया है। इस स्तोत्र के कर्ता भद्रबाहु कहे गए हैं। देवेन्द्रस्तव दूसरी ऐतिहासिक रचना है जो उसके अन्तर्साक्ष्य से ऋषिपालित की कृति है।
आचार्य अभयदेवसूरि की जयतिहुअण स्तोत्र तीसरी रचना कही जा सकती है। जो ३० गाथाओं में है। मानतुंगसूरि का श्री नमिऊण स्तोत्र तथा अज्ञातकर्तृत्व के श्रीभयहर स्तोत्र और श्री गोड़ी पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि प्राकृत भाषा में निबद्ध स्तोत्र पश्चात्कालीन हैं।
शङ्केश्वर तीर्थ
117