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शंखेश्वर के निकट ही मुजपुर नाम का एक ग्राम, मुजपुर के ठाकुर थे, श्री हमीरसिंहजी जिनकी धाक समस्त वढ़ियार प्रान्त में जमी हुई थी। अतः गुजरात का मुसलमान सूबेदार उन्हें अपना कट्टर शत्रु समझता था। एक बार अवसर देख अकस्मात् ही सूबेदार ने हमीरसिंह पर आक्रमण कर दिया। अप्रत्याशित आक्रमण में वीर हमीर सिंह का निधन हो गया। मुसलमानी सेना द्वारा मुजपुर का सारा क्षेत्र लूट लिया गया। अहमदाबाद की ओर वापिस लौटती सेना ने शंखेश्वरजी के मन्दिर को भूमिसात् कर दिया, परन्तु उस सेना के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही अगम बुद्धि श्रावकों ने श्री पार्श्वनाथ भगवन्त की प्रतिमा को भूमितल में छिपा दिया था। अतः मुसलमानों द्वारा मूर्ति भंग नहीं हो सकी। आज भी ध्वस्त देरासर के खण्डहर शंखेश्वर तीर्थ के मुख्य द्वार के दाहिनी ओर बिखरे हुए हैं और उन्हें सुरक्षित रखा गया है। यदि कोई यात्री देखना चाहे तो चौकीदार उन अवशेषों को दिखाता है। प्रत्येक देहरी पर वि.सं. १६५२ से १६९८ तक के शिलालेख अंकित हैं।
अनुमान यह है कि श्री सेन सूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर श्री विजयदेवसूरीश्वरजी के पट्टालंकार श्री विजयप्रभसूरिजी महाराज के उपदेश से तत्कालीन श्री संघ ने मूल गम्भरा तथा गूढमण्डप का निर्माण करवाकर भगवन्त श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ को प्रतिष्ठापित किया जिसका कि अनुमानित समय वि.सं. १७६० के लगभग होना सम्भव है।
आज यहाँ ग्राम में ईंटों से निर्मित जो ध्वस्त जिनालय विद्यमान है वह अकबर द्वारा गुजरात विजय के तुरन्त बाद बनवाया गया, क्योंकि उस समय तक जैनों ने सम्राट का विश्वास प्राप्त कर लिया था और वे अहमदशाही बन्धनों से भी पूर्णतया मुक्त हो चुके थे, इसी से उत्साहित होकर उन्होंने यह निर्माण कार्य कराया। इस जिनालय को राज्य की ओर से दान एवं शाही फरमान भी प्राप्त हुआ।
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त्रितीर्थी