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जिनालय है, जो अब खण्डहर के रूप में विद्यमान है। इसी के निकट एक नवीन जिनालय का भी निर्माण कराया गया है।
जयसिंह सिद्धाराज के मंत्री दण्डनायक सज्जन को यहाँ स्थित पार्श्वनाथ चैत्यालय के जीर्णोद्धार कराने का श्रेय दिया जाता है। यह कार्य वि.सं. ११५५ के लगभग सम्पन्न हुआ माना जाता है। यद्यपि समकालीन ग्रंथों में इस बात की कहीं चर्चा नहीं मिलती, परन्तु पश्चात्कालीन ग्रन्थों से यह बात ज्ञात होती है। वि.सं. ११५० से ११९९ पर्यन्त गुजरात में सोलंकी वंश के नरेशों का आधिपत्य रहा। वस्तुपाल-तेजपाल ने भी यहाँ स्थित चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया एवं चैत्यशिखर पर स्वर्णकलश लगवाया। कुछ विद्वानों के अनुसार यह कार्य वि.सं. १२८६ के लगभग श्री वर्धमान सुरीश्वरजी के उपदेश से सम्पन्न हुआ, परन्तु यथेष्ठ प्रमाणों के अभाव में उक्त तिथि को स्वीकार नहीं किया जा सकता। गुजरात के तत्कालीन महामंत्री श्री वस्तुपाल तेजपाल ने श्री शंखेश्वरजी में मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर प्रत्येक देहरी पर स्वर्ण कलश चढ़ाये। अपूर्व उत्साह से प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न करवाया, जिसमें २ लक्ष स्वर्ण मुद्राओं का सदुपयोग किया गया।
संघ के साथ यात्रा करते हुए वस्तुपाल-तेजपाल ने जिनालय के ५२ कुलिकाओं को स्वर्ण निर्मित कलशों से वर्णित किया। थोड़े वर्ष बाद ही दुर्जन व्यक्ति महामण्डलेश्वर द्वारा इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया। १७वीं सदी में जगद्गुरु पूज्य हीरविजयसूरि के पट्टधर श्री विजयसेनसूरिजी महाराज के उपदेश से शंखेश्वर गाँव के मध्य ५२ देवकुलिकाओं के परिव्रत भव्य जिनालयों का निर्माण करवाया और सूरिजी के वरद हस्त से प्रतिष्ठा करवाई। १८वीं सदी में औरंगजेब के समय मंदिर के रक्षा हेतु देवों द्वारा हुई मूलनायक प्रतिमा को जरा भी क्षति नहीं पहुँची। मुगलकाल में
शङ्केश्वर तीर्थ
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