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पार्श्व प्रभु की आराधना करने की ठान ली। हृदय की अनुभूति से पार्श्वप्रभु के दर्शन हुये। तब श्रावक ने पूछा- स्वामी! मुझे जिस तीर्थंकर की आराधना करनी है, क्यों नहीं उनकी प्रतिमा मैं आज ही तैयार कर आराधना प्रारम्भ कर दूं। उस समय दामोदर स्वामी ने अपने श्रावक को सहज स्वीकृति दी और आषाढ़ी श्रावक ने सफेद मोतियों के चूर्ण से भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा तैयार की और आराधना प्रारम्भ कर दी। वर्षों आराधना करने के बाद आषाढीभूत श्रावक का काल पूरा होने पर प्रतिमाशुद्ध चारित्र का पालन करने वाला श्रावक सौधर्म देवलोक के देवी वैभव का स्वामी बना। प्रथम देवलोक के देवों को अवधिज्ञान से स्वनिर्मित इस प्रतिमा के दर्शन हुये और वहाँ इस प्रतिमा को स्थापित कर पूजा सेवा की। इसके बाद सौधर्मेन्दे ने पूजा की।
ज्योतिष देवलोक के सूर्यदेव को सौधर्मेन्द्र ने प्रतिमा अर्पित की। सूर्यदेव ने सुंदर मुख की प्रतिमा का अद्भुत प्रभाव प्राप्त किया। भक्तिपूर्वक सूर्यदेव ने ५४ लाख वर्ष तक इस प्रतिमा की पूजा की। देवों द्वारा पूजित यह प्रतिमा निरंतर प्रभावशाली होती गयी। सूर्य के विमान में से यह अलौकिक जिनप्रतिमा चंद्रमा के आवास में आयी वहाँ भी ५४ लाख वर्ष तक पूजित होती रही। मृत्युलोक के एक मानव के हृदय में इस प्रतिमापूजन की उमंग जागृत हुई तब देवों द्वारा इस आकर्षक प्रतिमा को वहाँ भी स्थापित किया गया। पहले देवलोक, सौधर्म देवलोक, ईशान देवलोक में देवताओं द्वारा पूजित होती रही। दसवें प्राणत देवलोक में पूजित हुई। इस तरह इस प्रतिमा को सूर्य, चन्द्र व अन्य देवी-देवताओं व श्रावकों द्वारा पूजा गया। कालक्रम से यह प्रतिमा लवणसमुद्र में वरुणदेव, नागकुमार आदि देवों के आवास में अलंकृत हो पूजित होती रही। तत्पश्चात् गंग, यमुना नगरों में व अनेक स्थानों पर देवताओं द्वारा पूजी गयी। इस मूर्ति की पूजा का यशस्वी इतिहास है। इसी कारण प्रतिमा तेजस्वी होती गयी।
त्रितीर्थी