________________
केवलज्ञान कल्याणक हुए हैं। सहसावन को 'सहस्त्राम्रवन' भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ हजारों आम के घटादार वृक्ष हैं। यह भूमि नेमिनाथ भगवान के दीक्षा अवसर के वैराग्यरस की सुवास से महकती और कैवल्यलक्ष्मी की प्राप्ति के बाद समवसरण में बैठकर देशना देते हुए प्रभु की पैंतीस अतिशययुक्त वाणी के शब्दों से सदा गूंजती रहती है। इस सहसावन में श्री नेमिनाथ प्रभु की, दीक्षा कल्याणक तथा केवलज्ञान कल्याणक की भूमि के स्थान पर प्राचीन देव कुलिकाओं में प्रभुजी की पादुकायें परायी हुई हैं। उसमें केवलज्ञान की देवकुलिका में तो श्री रहनेमिजी तथा साध्वी राजीमति श्रीजी की यहाँ से मोक्ष में जीने के कारण उनकी पादुकायें भी बिराजमान है। लगभग 40-45 वर्ष पूर्व तपस्वी सम्राट प.पू. आ. हिमांशुसूरि महाराज पहली ट्रंक से इस कल्याणक भूमि की स्पर्शना करने के लिए विकट पगदंडी के मार्ग से आते थे। उस समय कोई
भी यात्रिक इस भूमि की स्पर्शना करने का साहस नहीं करता था । इसलिए आचार्य भगवत के मन में विचार आया कि 'यदि इसी तरह इस कल्याणक भूमि की उपेक्षा होगी तो इस ऐतिहासिक स्थान की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी'। बस इस समय कोई दिव्यप्रेरणा के बल से महात्मा ने इस भूमि पर दो जिनालयों का निर्माण करने का विचार किया। उनके अथक पुरुषार्थ से सहसावन में जगह प्राप्त कर केवलज्ञान कल्याणक के प्रतीक के रूप में समवसरण जिनालय का निर्माण हुआ ।
(16) समवसरण जिनालय : श्री नेमिनाथ भगवान (35 इंच )
इस समवसरण जिनालय में चतुर्मुखजी के मूलनायक श्यामवर्णी संप्रतिकालीन श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा बिराजमान है। इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. 2040 चैत्र वद पाँचम के दिन प.पू. आ. हिमांशुसूरि महाराज, प.पू.आ.नररत्नसूरि महाराज, प.पू. आ. कलापूर्णसूरि महाराज तथा
86
त्रितीर्थी