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पशु, पक्षी, मनुष्य या विकलेंद्रिय प्राणी भी नहीं है। स्वर्ग में नित्य ही दिव्यप्रकाश रहता है अतः रात्रि और दिन नहीं होते। यह ऐसा दिव्यक्षेत्र है जहां आकाशमें कोई विकार नहीं आता। न तो सूर्य अधिक तप्त होता हैं और न चंद्र अधिक शितल होता है और न ग्रहोंका प्रकोप होता हैं। वहां सदा सुखदायी वसंत ऋतु रहती हैं सुगंधीत पवन मंदगति से वहता है। सुगंधित मिटे जलसे भरी बावडीया हैं, सरोवर है, पर्वत है अनको वृक्ष, लताये उद्यान, वनखंड और मंदिर है। इस प्रकार की रचना स्वर्ग में प्राकृतिक है, कृतक नहीं। वहां के भवन और विमान दिव्य है। भवनपति और व्याणव्यन्तर दवोंका निवासस्थान भवन कहलाता है। ज्योतिष्क और वैमानिकांके निवासस्थान विमान होते है। विमानो पर, भवनो पर उंची उंची श्रेष्ट ध्वजा पताकार्य लहराती है। मणि-मातियोंकी चमकसे ये विमान सदा दिप्त रहते है। उनमें दुर्दूभी और घंटोके मनोहर नाद हात रहते है। नाटक और गीत चलते रहते है। देवला' देवता पांचा इंद्रिया व ताना योगकं विपयसुखोंका मनोज्ञ आनंद निरंतर लेते रहते हैं। कहा गया है कि स्वर्गिय भागविलासमें लिन देवता भी मनुष्य लोकमें आना चाहते है पर आ नहीं सकते है इसके कारण हैं -
(१) मनुष्य लोक भयंकर अपवित्र और दुर्गंध युक्त होनेके कारण यहां आनेकी इच्छा मिट जाती हैं, (२) स्वर्गिय सुपुम्ना वैभव और देवांगनामें उन्हे महारस मिलने के कारण उस लोकसे प्रेम हो जाता हैं, (३) इस लोक सम्बंधी प्रेम दिलसे हट जाता हैं। अभी कछ समय यहां विताकर जाऊंगा असा सोचते सोचते वे समय वीता देते है।
देवता इस लोकमें क्यु आते हैं, उन कारणा की भी कविने चर्चा कि है।
(१) तीर्थंकर भ. कं जन्म, दिक्षा, कैवल्य व निर्वाणपर तथा तीर्थंकरके वंदन पूजनके लिये देवता पृथ्वीलोकमें आते हैं (२) घोर तपस्वी या ज्ञानीमुनिकी उपासना के लिये, (३) पूर्वजन्माकं स्वजनाकं माहवश अथवा वैरका वदला लेने के लिये, (४) उत्कृप्ट मंत्राराधना या ध्यानसाधना से आत्कृप्ट होकर देवता मनुष्यलोकमें आते है।
आगे छंद ३६३ में कविन कहा है संसारमें अनेक लोग देवताओंकी सेवा करते है, मंत्र लिखते हैं ध्यान करते है, देवगतिकी वांछा करते है परंतु जिनेश्वर भगवानने देवगतिसे मनुष्यगतिको ज्येष्ट, श्रेष्ट माना है। देवता भी संयभी को वंदन, नमस्कार करते हैं, मनुष्य जन्म पाने के लिये तरसते है क्योंकि मुक्तिका मार्ग मनुष्यगति से जाता है, देवगति से नहीं। उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना केवल मनुष्य गति से ही संभव है।
देवताओं की विशेषताये (१) जन्म और शरीर के लक्षणः
देवों का जन्म गर्भस नहीं होता हैं वे देवशय्या पर उत्पन्न होते है। प्रारम्भमें अर्थात जन्मसे एक अन्तर्मुहूर्तपर्यंत उनकी अपर्याप्त दशा होती हैं उस समय उनके
૨૪ - ૧ભી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો