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देवरचनामें प्रयुक्त बंधः
देवरचनाके छंदोको कई स्थानपर सुंदर चित्राकृति अलंकारोकी जोड मिलने से उन छंदोका सौष्टव सोनेमें सुहागा हो गया है। विविध छंद व बंधको ग्रंथके विपयके साथ साधना अर्थात मणिकांचन योगको साधना है। प्रस्तुत कृतिमें कमलवंध, चक्रबंध, सरवरबंध, सरुबंध, सेहरावंध, नाविका वंध, रसना बंध, वृक्षबंध, छणकणा बंध, चौपड बंध, साथिया बंध आदि बंधोका प्रयोग हुआ है। एक एक विपय के लिये एक एक छंदको चुनना, अलग अलग चित्रालंकार बनाना और छोटे से छोटे छंदमें व्यापक अर्थकी, व्यापक भावो की प्रस्तुति करना महाकविकी विद्वत्ताका द्योतक हैं। देवरचनामें प्रयुक्त प्रहेलिका अलंकारः
प्रहेलिका अलंकार के दो भाग होते है - अतंरलापिका और वहिापिका। दोनो ही अलंकारोका कवि श्रेष्ठ हरजसरयजीने अपनी कृतिमें रंजकता के साथ उपयोग किया है। जिस प्रहेलिकामें प्रश्न के शब्दमे ही उसका उत्तर गर्भित हो उसे अंतरलापिका कहते है। जिस प्रहेलिका में उत्तर उसके शब्दोमें निहित नहीं अपितु उसके लिये अलग से दिमाग लडाना पडे, उसे वर्हिलापिका कहते हैं। दोनों ही अलकारोंको पहेलीयोमें रचनाकर कवि श्रेष्टने अपनी कृतिकी रंजकता और व्यावहारिकता वढा दी हैं। एक छप्पय छंद के छह चरणो में कविने ग्यारह प्रश्न और उनका उत्तर गुंफित किया है। छंदके अंतिम चरणका पद्यांश 'ऋपभादिक तिरणकरण' इन ग्यारह अक्षरोमें प्रत्येक अक्षरको अंतमें 'ण' वर्ण लगाने से ग्यारह प्रश्नो के ग्यारह उत्तर मिल जाते है। छप्पय छंदका पद्यांश 'दिवाली की रात' इन छह शब्दामें कविके सात प्रश्नो के उत्तर मिलते है। इसी तरह एक सर्वय्येके चार चरणमें वारह प्रश्न पूछे गये हैं और सवका उत्तर एकाक्षरी है। अंतिम पद्यांश 'चन भुपण कंज सुंगधी' मे ग्यारह प्रश्नो के क्रमशः उत्तर लिये गये है। एक सवैय्या में तो कविने अपनी प्रतिभा कौशलका असा चमत्कार किया है कि जो प्रश्न के शब्द है, अक्षर है; वही शब्द वही अक्षर उसका उत्तर भी है। वह सभी पहेलिया इतनी रोचक और मार्मिक हैं कि सहज ही पाटक का मन कविकी प्रतिभाको दाद देना चाहता है।
विषय-निरुपण देवगतिः
संसारके सभी आत्मवादी दर्शनाने गति चार मानी है - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। सन्नी तिर्यंच और सन्नी मनुष्य की गति देवलाी हो सकती है। सराग संयम, संयमासंयम, अज्ञान तप और अकाम निर्जरा ये देवगति के चार कारण है। देवलोी भूमि श्रेष्ठ है। वहां वर्ण, गंध, रस और स्पर्श शुभ ही शुभ होते हैं। देवलोकमें कंकर, कांटे, किचड, धुल आदि अपवित्र वस्तुए विलकुल नहीं है। वहां
कविवर्य श्री हरजसरायजीकृत 'देवरचना' + २३