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ग्रंथ विषयः
यथानाम देवगतिका स्वतंत्र चिन्तन इस ग्रंथ का मुख्य प्रयोजन है। भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवो के शरीर, अवगाहना, आयु, संघयन, संस्थान, संज्ञा, लेश्या, कषाय, इंद्रिय, वेद, शक्ति, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, आहार, गति, स्थिति आदि सभी पैलू प्रस्तुत ग्रंथ के विषय बने है। विविध छंदोके माध्यम से कविने देवताओके विशेष लक्षणों का चित्र प्रदर्शित किया है। ग्रंथ के उत्तरार्धमें सिद्ध भ. की तथा जिनवाणी की महिमा अनेकानेक उपमाओ के माध्यम से की गई है। तीर्थंकरो के अतिशय, कल्याणक, तीर्थंकर गोत्र बंधन के २० बोल, कर्म, प्रकृति, गति आगति, आदि कई थोक, बोलों पर भी चिन्तनात्मक प्रकाश डाला है। विविध छंदो की रचना, बंधो की चित्रमय प्रस्तुति और अलंकारो का प्रयोग यह इस ग्रंथराज की अनोखी पहेचान है। जैन शासनमें प्रभावः
समकित रस से ओतप्रोत यह अंसी रचना हैं जिसे गानेसे, पढने-सुनने से या चित्तमें धारण करने से अद्भुत आनंद प्राप्त होता है। ज्ञान और सद्बुद्धि में वृद्धि के साथ यह आराध्य के प्रति निष्टा, भक्ति व समर्पण भाव जगाती हैं। चाहे इसकी विषयवस्तु देवगति है पर स्थानस्थान पर यह मनुष्य गतिकी दुर्लभता का, महानता का स्पष्ट बोध कराती है। इस रचनाका सृजनात्मक पहलु यह है की यह आत्मवादी धारणा को पुष्ट करती है। साधक को जैन इतिहास, जैन दर्शन व सिद्धांत से अवगत कराती है। देव, गुरु और धर्म के प्रति आस्था दृढ वनाती है। अपनी रचना के हेतुओं को दर्शाते हुए कवि लिखते हैं कि पांच कारणो से प्रेरित होकर मैने यह देवरचना लिखी (दोहा ८३७)
(१) जैन धर्मको जगत् में दिपाने के लिये। (२) संसार का स्वरूप बताने के लिये। (३) कर्म निर्जरा के लिये। (४) ज्ञानवृद्धि के लिये। (५) अविचल क्षेत्र मुक्ति पाने के लिये।
इस रचना हृदय, बुद्धि और कंट का संमिश्रण है। इसका स्मरण करते हुए हम हृदय से सोचते हैं, बुद्धि से अनुभूति करते हैं और कंटसे मधुर संगान करते है। चाहे छंद, बंध व अलंकार इनका व्याकरण जटिलतम विषय है पर भापा, लय, तान, गति का असा सुमेल कविने साधा हैं जिससे विस्मृति के कगारपर खडी इस काव्यशैली को पुनः नवजीवन मिलना अपेक्षित हैं। देवरचना - शब्द विन्यासः
देव और अपर शब्दरचना इन दो शब्दों को मिलाकर देवरचना शब्द बना हैं। इन दोनो शब्दो के सात सामासिक रुप बनते हैं - तद्यथा
कविवर्य श्री हरजसरायजीकृत 'देवरचना' + १८