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महावीर की निर्वाण शताब्दी के अवसर पर प्रस्तुत किया गया था । आचार्यमुनि के गुरुवर आ. श्री पुष्करमुनिजी की यह शुभ भावना थी कि इस शुभ अवसर को स्वर्णिम बनाया जाय । उनकी भावना को साकार स्वरूप दिया शिष्य श्री देवेन्द्रमुनिने। इस ग्रन्थ में जैनदर्शन के सभी मूलभूत तत्त्वों का समावेश किया गया है जैसे कि कर्म, प्रमाण, नय, सप्तभंगी आदि गम्भीर विषयों को विस्तार के साथ रोचक शैली में रचा गया है । इसे हर जिज्ञासु तत्त्वचिंतक ने अवश्य पढना चाहिए । ___धर्म और दर्शन' पुस्तक में उन्होंने धर्म और दर्शन को एक दूसरे का पूरक बताया है । दर्शन विचार को प्रधानता देता है तो धर्म आचार को । दर्शन का अर्थ बताते हुए उन्होंने लिखा है कि दर्शन का अर्थ है सत्य का साक्षात्कार करना और धर्म का अर्थ है उसे जीवन में उतारना । कितनी वडी वात उन्होंने सहजता से समझायी है । भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन प्रभावशाली और प्रमुख रहा है । इस पर अनेक भाषाओंमें विपुल साहित्य लिखा गया है । इसका अंग्रेजी अनुवाद 'A source Book of Jaina Philosophy' नाम से प्रकाशित हुआ है । उन्होंने दर्शन और फिलोसोफी' में अन्तर स्पष्ट किया है । उन्होंने बताया है कि दर्शन शब्द आत्मज्ञान की ओर संकेत करता है और फिलोसोफी शब्द जिज्ञासुभाव को शान्त करने हेतु उद्भव हुआ है । जैनदर्शन विश्व का एक वैज्ञानिक दर्शन है । धर्म में आस्था रखनेवाला दर्शन का अध्ययन करना अनिवार्य समझता है, जिस प्रकार दार्शनिक धर्म का आचरण करना नितान्त अनिवार्य समझता है । इस पुस्तकमें जैनदर्शन के सर्वांगीण रूप का विशद् परिचय कराया गया है । उनका पाण्डित्य उनके ग्रंथोमें निचोडनिचोडकर भरा हुआ है । उन्हें पढने और समझने से यह लगता है कि उन्होंने अपनी लगन और अथाग परिश्रम से विपय की गहराई तक प्रवेश कर विपय की सूक्ष्मता को स्पर्श करके कई मौलिक और समीक्षात्मक कृतियाँ प्रदान की है। __एक अनूठा शोधग्रन्थ उनके द्वारा जैनसाहित्य को मिला वो है : 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' जिसे पढने से उनकी अन्वेपक विद्वत्पूर्ण छवि हमार सामने छा जाती है और इसी वात से प्रेरित होकर में इस पत्रलेखन द्वारा उनका साहित्यिक दर्शन का दर्पण तुम्हें दिखाना चाहती हूँ । उनकी एक एक कृति एक एक इतिहास बनकर शोध को संशोधनात्मक ग्रंथ वनाती गई है।
मूल आगम के बारे में मुझे थोडीबहुत जानकारी थी पर नियुक्तियाँ, चूर्णि, टीका, भाष्य और टब्बा ये सभी के प्रकार का परिचय मुझे इनके इस ग्रंथ के वाचन (पटन) से प्राप्त हुआ । यह ग्रन्थ उनकी गहन श्रुतसागर का अवगाहन, दीर्घकालीन अध्यवसाय और सूक्ष्म अन्वेपणी प्रज्ञा से ही संभव हो सका है। उन्होंने जैनसाहित्य का परिचय बहुत प्रामाणिकता के साथ संतुलित भाषा में प्रस्तुत किया है यह उनकी अपनी खास विशेषता रही है । दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य बत्तीस (३२) और श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य पैंतालीस (४५) आगमों का विस्तृत विवरण इसमें
आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि (एक साहित्यकार) + ५८८