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प्रस्तुत किया है । जैन आचार' के दो वृहद् खण्डो में श्रमण एवं श्रावकाचार पर विस्तृत एवं सर्वांगपूर्ण सामग्री दी है । 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' नामक विशाल ग्रंथ के माध्यम से आगमों की विषय-वस्तु एवं इतिहास का विशद विवरण किया है । 'कर्म विज्ञान' नामक ग्रंथ के नौ भागों में उन्होंने कर्मसाहित्य पर लिखे गये सैंकडों ग्रंथों का मनन कर मंथन, विवेचन एवं नवनीत लगभग ३५००
पृष्ठोंमें यानि 'गागर में सागर' का समावेश किया है । ‘साहित्य और संस्कृति' एवं 'धर्म दर्शन : मनन और मूल्यांकन' ग्रंथोमें आचार्य मुनिश्री का बहुआयामी चिंतन उजागर हुआ है । उन्होंने तत्त्व के सागर के तल तक डूबकी लगाकर अमूल्य मोती
चुनकर जैनसाहित्य के समक्ष रखे हैं । इन शास्त्रीय विवेचन ग्रंथों के अलावा उन्होंने 'जैन जगत के ज्योतिर्धर', 'पर्यों की परिक्रमा' नाम ऐतिहासिक ग्रंथ भी लिखे । यही नहीं उन्होंने जैनग्रंथों के आधार पर युवा पीढी के लिए लगभग सत्तरह (१७) उपन्यास, पचासों कहानीसंग्रह, निबंधसंग्रह एवं सूक्तियाँ लिखि हैं। उनके प्रवचनों के संग्रह भी श्रावक समाज में वहुत लोकप्रिय हुए ।
आचार्य देवेन्द्रमुनि की विद्वता, कीर्ति, उनकी व्यवहारकुशलता, संगटनदक्षता तथा लोकनायकत्व की योग्यता का लक्ष्य में लेते हुए सन् १९८७में पूना के साधुसम्मेलन में आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋपिजीने उनको श्रमणसंघ के आचार्य के रूप में अपना उत्तराधिकारी घापित किया । सन् १९९२ की २८ मार्च के दिन आचर्यश्री आनन्दऋपिजी का स्वर्गवास हो जाने पर समस्त श्रमण संघ के पदाधिकारियों ने आचार्यश्रीकी घोषणा अनुसार उनको श्रमणसंघ का आचार्य घोपित किया तथा सन् १९९३ की २८ मार्च के दिन उदयपुर में उनको विधिवत् आचार्य पदकी चादर
ओढाकर जैन स्थानकवासी श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री के रूप में अभिपिक्त किया गया । युगपुरुप अपने वचनों से नहीं अपितु अपने कर्तृत्वों से बोलते हैं ।
३ (तीन) अप्रैल को साधना के शिरमार उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी का स्वर्गवास हा गया । इसके पश्चात् आचार्यश्री देवन्द्रमुनिने उत्तर भारत, पंजाव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-काश्मीर, दिल्ली के संघों की आग्रहभरी विनंती का सहर्प स्वीकार कर उत्तर वारत की धर्मयात्रा प्रारम्भ की । राजस्थान से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कास्मीर होकर उन्होंने भारत की राजधानी दिल्ली में तीसरा चातुर्मास किया ।
तीन वर्षीय उत्तर भारत की सफल धार्मिक पैदल यात्रा कर आचार्यश्री पुनः अपनी जन्मभूमि उदयपुर पधारे । उदयपुर का यशस्वी वर्षावास पूर्ण कर उन्दौर वर्षावास विताया । तत् पश्चात् महाराष्ट्र की आग्रहभरी प्रार्थना को स्वीकारकर महाराष्ट्र की ओर यात्रा प्रारम्भ की । परंतु दुर्दैव ! वीच में ही उनका स्वास्थ्य अचानक बिगडा और उनकी चिकित्सा-क-उपचार हेतु वे मुम्बई पधारे । मुम्बई में शारीरिक चिकित्सा करवाकर वे औरंगावाद चातुर्मास के लिए प्रस्थान कर घाटकोपर (बम्बई) पधारे । अचानक ही उनकी शारीरिक स्थिति बिगड जाने से २६ अप्रैल
आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि (एक साहित्यकार) + ५८५