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लाई गई सामग्री की विशेषताओं का रसप्रद वर्णन किया है ।
'उणादि प्रयोग यशस्विनी मंजूषा'
२३ वर्ष की उम्र में उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की थी । व्याकरण ग्रंथो से अपरिचित व्यक्तिओ को आसानी से समझ में आये ऐसा यह विषय नहीं है | इसलिये इस ग्रंथ के वारे में थोडा विस्तार करती हूँ ।
व्याकरण में एक प्रकरण 'उणादि का होता है । जिस शब्द की सिद्धि स्वाभाविक नियमों के अनुसार एवं प्रचलित धातु सूत्रों वगैरह से नहीं होती उसके लिये भाषाविदों ने 'उणाद' की रचना की । वडे व्याकरण ग्रंथो में 'उणादि का विभाग अवश्य होता है ।
आ. श्री ने पाणिनि ऋषि के अष्टाध्यायी व्याकरण सिद्धांत कौमुदी टीका सहित के १२००० श्लोक कण्टस्थ किये थे । 'उणादि' का निष्ठा पूर्वक अभ्यास करके १७५७ शब्दों की व्युत्पत्ति के साथ एक शब्दकोश तैयार किया । संस्कृत के विद्यार्थियों को व्युत्पत्तिओ का ज्ञान सरलता से प्राप्त हो, शब्द किस धातु पर से वना है, शब्द किस गण का है, उसकी व्युत्पत्ति किस सूत्र से सिद्ध होती है, शब्द किस लिंग का है उसका गुजराती एवं हिंदी अर्थ क्या है उसका ज्ञान इस ग्रंथ में दिया गया है ।
किस शब्द का क्या अर्थ किस तरह से निकलता है उसे 'व्युत्पत्ति कहते हैं। ननंद का शब्द अर्थ पति की वहन ऐसा करते हैं । उसकी व्युत्पत्ति में वताया गया है कि नंद धातु है जिसका अर्थ 'आनंद' होता है । उसके पहले 'न' लगाया इसलिये ननंद शब्द की व्युत्पत्ति 'न नंदयति भातृजायात् इति ननंद' अर्थात् स्वयं की भाभी को खुश न रखे उसे ननंद शब्द से निर्देशित किया जाता है ।
जव उज्जैन में इस ग्रंथ का विमोचन किया गया तव तत्समय के प्रमुख वक्ता डॉ. अवस्थीजी के उद्गार थे कि यदि उणादि सूत्र नहीं होते तो व्याकरण का एक अंश अपूर्ण रह जाता। उन्होंने बताया कि इश्वर शब्द का स्त्रीलिंग 'ईश्वरा' वनता है, 'इश्वरी' नहीं । उन्होंने कहा कि वर्तमान युग 'कोशों' का युग है । कोशों के विना चलता नहीं है । कोशों के साथ अकारादि वर्णानुक्रम से सूचि होनी चाहिये । वह आ. श्री के शिष्य पू. मुनिश्री जयभद्रविजयजी ने किया है ।
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कहा जाता है कि 'उणादि प्रयोग' का इतना सुविस्तृत कार्य संस्कृत भापा में इतने बडे पैमाने पर भारतभर में पहली बार हुआ है । वैयाकरणिओ ने आ. श्रीकी इस कृति की मुक्तकंठ से भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।
कल्पसूत्र सुबोधिका टीका :
वि.सं. २०१० सन १९५४ में आचार्यश्री की संपादित कृति 'कल्पसूत्र सुवोधिका टीका' का प्रकाशन हुआ है । उस संपादन की विशिष्टता हैं।
(१) सुंदर मुद्रण और उच्च कक्षा के कागज ।
साहित्य कलारत्न श्री विजय यशोदेवसूरि + ५२१