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महावीर राजा-चार-पुरुष-पुष्करणी (वापिका) पुंडरिक, आस्त्रव का फल, मिथ्या सिद्धांतवादी, मित्थावी, एवं शुद्ध साध्वाचार का दृष्टांतपूर्वक फल दिखाकर साधु को जिनमत में श्रद्धा एवं आस्रव निरोध का उपदेश दिया है।
३१. प्रभुस्तवन सुधाकर - आचार्य श्री ने वर्तमान युग में प्राकृत-संस्कृत से अनभिज्ञ जन साधारण के लिए देशी भाषा में जो चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन एवं सज्झाय रचे है उनका संकलन इस पुस्तक में है।
३२. प्रश्नोत्तर पुष्प वाटिका - इस ग्रंथ में उस समय के विवादास्पद प्रश्नो का तथा और भी इतर प्रश्नो का सुन्दरतम शैली से निराकरण किया गया है। इस ग्रंथ की रचना वि. सं. १९३६ में गोलपुरी (जिला जालोर) राजस्थान में की गई।
३३. प्रश्नोत्तर मालिका - इस ग्रंथ में मुख्य रूप से जिनमूर्ति प्रतिष्ठा की शास्त्रोक्त मान्यता विषयक शास्त्रार्थ का प्रमाण के साथ उत्तर सहित वर्णन है।
३४. महावीर पंचकल्याणक पूजा - इसमें प्रत्येक पूजा के प्रारम्भ में दोहे है। दो-दो ढालों में (गीतो में) एक-एक कल्याणक का वर्णन है। प्रत्येक पूजा के अंत में काव्य एवं मंत्र है। और समस्त पूजा पूर्ण होनेके सूचनास्वरूप कलश काव्य की रचना है। पूजा का वर्णन हीडा, जल्लानी, गरवी, नानडिया, सोरट-गिरनारी आदि राग-रागिनियों में किया है, कलश ‘पारणा' की राग में है।
३५. राजेन्द्र सूर्योदय - इस पुस्तक में पन्यास चतुरविजयजी के साथ हुए अनादि तीन थुइ और अर्वाचीन चार थुइ एवं शास्त्रीय समाचारी (आचार पालन के नियम) संबंधी शास्त्रार्थ का वर्णन किया है।
३६. विंशति-विहरमान जिन-चतुष्पदी - इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्री ने वि. सं. १९४६ में कार्तिक शुक्ल पंचमी (ज्ञान पंचमी) के दिन सियाण (राज.) में पूर्ण की थी। 'गागर में सागर' समान इस लघु ग्रंथ में जैनागमों के अनुसार पाँच महाविदेह क्षेत्रों में विहरमान वर्तमान वीस जिनेश्वरों के नाम, जननी, जनक, सहधर्मिणी, लंछन, विजय (देश), नगरी तनु-वर्ण आदि का वर्णन किया है।
३७. शांतिनाथ स्तवन - इसमें दो ढालें है। आचार्य श्री ने प्रथम काव्य में जैन सिद्धांतानुसार देववंदन एवं सामायिक विधि एवं द्वितीय में प्रतिक्रमण विधि सूत्रों के नाम एवं क्रिया विधि का महिमा सहित वर्णन किया है।
३८. सकलैश्वर्य स्तोत्र - संस्कृत भापा में रचित इस स्तोत्र में २३ श्लोक अनुष्टुप छंद में एवं अंतिम २४ वाँ श्लोक मालिनी छंद में है। प्रथम श्लोक में अर्हन्त देवको, द्वितीय में चारों निक्षेप से समस्त जिनेश्वरों को एवं तृतीय से २२ पर्यंत महाविदेह में वर्तमान श्री सीमंधरादि २० तीर्थंकरों की स्तुति की है। २३ वें श्लोक में सर्व गणधर केवली भगवंत एवं समस्त साधु भगवंतों को वंदन किया है। अंतिम २४ वें श्लोक में प्रशस्ति है।
३९ स्वगच्छीय मर्यादापट्टकम् - पूर्वाचार्यों की तरह आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी ने वि. सं. १९५६ में शिवगंज में स्वगच्छीय साधु-साध्वी के लिए आचार
श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति की ज्ञान अवं तपः साधना + ४२५