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________________ ११. गच्छाचार पयन्ना - वृत्ति भाषान्तर - 'श्री गच्छाचार पयन्ना' मूल ग्रंथ पर वि. सं. १६३४ में विमल विजय गणि ने ५८५० श्लोक प्रमाण टीका बनाई है। उसी टीका का भाषान्तर पूज्य आचार्य श्री ने वि. सं. १९४४ के पोप महीने में सौराष्ट्र (गुजरात) में किया था। भाषान्तर में कहीं-कहीं टीका से भी अधिक विवेचन किया है। यह ग्रंथं श्रमण और श्रमणी संघ के समस्त आचारविचार का विवेचक है। प्रत्येक साधु व साध्वी को एक बार यह ग्रंथ अवश्य पढने के योग्य हैं। १२. गणधरवाद - (गणधरवाद) इन्द्रभूति गौतम आदि उन ग्यारह वैदिक विद्वानों के संशयों के समाधानों का संकलन हैं। जो सर्वज्ञ महावीर के शिष्य बनने और गणधर पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व जिज्ञासु के रूप में अपना पांडित्य प्रदर्शन एवं भगवान की सर्वज्ञता का परीक्षण करने की आकांक्षा से उनके समवसरण में उपस्थित हुए थे। लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारणा करने वाले तथा तीर्थंकर के प्रवचन की सर्वप्रथम सूत्र रूप में संकलित करने वाले महापुरुष 'गणधर' कहलाते है। १३. चैत्यवंदन चतुर्विंशतिका - आचार्यश्री ने इसमें चोवीसी के २४ तीर्थंकरों के गुण वर्णन स्वरूप संक्षिप्त काव्यों की तीन-तीन श्लोक में रचना की है जो चैत्यवंदन, देववंदन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक क्रियाओं में उपयोगी होती है। १४. चौपड खेलन (क्रीडा) सज्झाय - इस सज्झाय में १८ गाथा में शतरंज की क्रीडा के दांव-पेंच का वर्णन कर, आत्मा को उद्देशित कर संसार के दाव-पेच से वचकर शुद्ध संयमजीवन पालन करके अयोगी गुणस्थानक प्राप्त कर सिद्ध स्वरूप प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। १५. चौमासी देववंदन - इस देववंदन माला की रचना आचार्य श्री ने खाचरोद में वि. सं. १९५३ में आषाढ सुदि सप्तमी को की है। इसमें कुल ३१ चैत्यवंदन, ४० स्तुतियाँ और ११ स्तवन है। १६. जिन स्तवन चतुर्विंशतिका - प्रसिद्ध अध्यात्म योगी श्री आनंदघनजी की तरह आचार्य श्री ने भी २४ तीर्थंकरों के गुणगान करते हुए, विविध देशी राग रागिनियों में भजन स्वरूप २४ स्तवनों की रचना की है। इन स्तवनों में आचार्य श्री ने प्रभु भक्ति के माध्यम से जैन दर्शन एवं जैन धर्म के सिद्धांतों जैसे देवाधिदेवत्व, नयवाद एवं प्रमाण, सप्तभंगी, स्याद्वाद, तीर्थंकरों का महादेवत्व, उनके अतिशय-गुण वर्णन, प्रतिक्रमण, नवतत्त्व, कर्म सिद्धांत, जिन प्रतिमा की महिमा, चारित्र, ब्रह्मचर्य आदि अनेक विषयों पर रोचक प्रकाश डाला है। १७. जिन स्तुति चतुर्विंशतिका - इसमें आचार्य श्री ने २४ तीर्थंकरों के आश्रित कर उनके गुणों का वर्णन करते हुए एक-एक स्तुति की रचना की है। यह भी धार्मिक क्रियाओं में अतीव उपयोगी है। १८. जिनोपदेश मंजरी - आचार्य श्री ने 'श्री जिनोपदेश मंजरी' की रचना वि. सं. १९५४ में खाचरोद (म.प्र.) में की थी। इस ७० पृष्ट की पुस्तक में रोचक श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति की ज्ञान अवं तपः साधना + ४२३
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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