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________________ उनके देहावसान के बाद आप धर्मध्यान में प्रवृत्त हुए। उसी समय संवत् १९०२ में श्री कल्याणसूरिजी महाराज सा. के शिष्य श्री प्रमोदविजयजी म. भरतपुर में पधारे। उनके वैराग्यपूर्ण व्याख्यानों से आप प्रभावित हुए । उन्हें संसार की असारता, जीवन की नश्वरता एवं वैभव की क्षणिकता समझ में आई और आपके हृदय में वैराग्य का प्रस्फुटन हुआ। आपने गुरुदेव के समक्ष सांसारिक विषयों के प्रति हार्दिक अरुचि प्रकट की व दीक्षादान की याचना की । ज्येष्ठ भ्राता से आज्ञा लेकर वि. सं. १९०४ वैशाख शुक्ला पंचमी को शुक्रवार को श्री प्रमोदसूरिजी के ज्येष्ट गुरु भ्राता हेमविजयजी के करकमलों से यतिदीक्षा ग्रहण की। आपका नाम 'रत्नविजय' रखा गया। उस समय सागरचन्द्रजी मरुधर के यतियों में भारी विद्वान थे। वे श्री प्रमोदविजयजी के परम मित्र थे; इसलिये उन्होने रत्नविजयजी को शिक्षा के लिए सागरचन्द्रजी के पास भेजा। सागरचन्द्रजी ने छ वर्ष तक आपको पास रखा एवं व्याकरण, न्यायकोप, काव्य, अलंकार आदि में निपुण वना दिया। तत्पश्चात उन्होने तपागच्छाधिराज पूज्य 'देवेन्द्रसूरिजी महाराज के पास रहकर जैन सिद्धांतो का अवलोकन किया और गुरुदत्त अनेक चमत्कारिक विद्याओं का साधन किया । आपके गुणों एवं बुद्धि की विचक्षणता को देखकर 'श्री देवेन्द्रसूरिजी ' ने आपको उदयपुर शहर में श्री हेमविजयजी महाराज सा से स. १९०९ वैशाख शुक्ला ३ को बडी दीक्षा एवं ‘पंन्यास' पदवी से अलंकृत करवाया। संवत १९१२ में देवेन्द्रसूरिजी ने अपने वाल शिष्य 'धीरविजय' को आपके पास अध्ययनार्थ सौंप दिया। पाँच वर्ष तक आपने धीरविजयजी एवं इक्यावन यतियों को विद्याभ्यास करवाया। धीरविजयजी को पूज्यपद दिलवाकर 'धरणेन्द्रसूरि' नाम से प्रसिद्ध किया। जोधपुर और बीकानेर के राजाओं से धरणेन्द्रसूरि ने आपको 'दफतरी' पद दिलवाया। 'दफतरी' पद उस समय वहुत सम्मान का पद माना जाता था । वि. सं. १९२३ में धरणेन्द्रसूरिजी का चातुर्मास धाणेराव में था । वहाँ एक इत्र विक्रेता से उन्होने इत्र क्रय किया एवं रत्नविजयश्री से उसका मूल्यांकन करने को कहा। श्रीमद्जी वैसे भी यति परम्परा के वाह्याडंवरों के विरोधी थे । यतिवेष उनकी उपजीविका का साधन वन गया था। वैभव विलास सीमा पार कर गए थे। समूचा यति वर्ग मंत्र तंत्र में लीन था । पालखी, चामर, छडी, सैनिक आदि; भांग, गांजा आदि व्यसन; शृंगार, जुआ, परिग्रह आदि के साथ धुलमिल गया था। आचार्य श्री सही माने में श्रमण जीवन जीना चाहते थे अतः वे उचित अवसर की तलाश में थे । इत्र की परख करने के लिए जव धरणेन्द्रसूरिजी ने कहा तो उन्हे अनुकूल अवसर प्राप्त हो गया व उन्होंने जो उत्तर दिया वह इतिहास की अनमोल धरोहर बन गया। उन्होंने कहा एक साधु के लिए, यह इत्र कितना भी किमती हो, पर गधे के मूत्र से अधिक कीमत नहीं रखता। यह उत्तर श्री पूज्य के साथ सारे यति समाज के लिए खुली चुनौती वन गया। सारे यति समाज को कलमनामे की आग में अपने को जलाना पडा । संक्षेप ૪૦૬ - ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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