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श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति
की ज्ञान ओवं तपः साधना
. विजयलक्ष्मी पोरवाल
સાહિત્યના અધ્યયન દ્વારા સક્રિય રહીને સંસ્કારસિંચન કરનાર શ્રી વિજયલક્ષ્મી પોરવાલે પ્રસ્તુત લેખમાં પ.પૂ. આ. શ્રીમદ્ રાજેન્દ્રસૂરિજી મહારાજસાહેબની સાહિત્યસાધના ઉપર સારો એવો પ્રકાશ પાડ્યો છે. – સં.)
हमारे गुरुवर्य सोधर्मवृहत्तपागच्छीय कलिकाल सर्वज्ञकल्प भट्टारक १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के बारे में लिखना सूरज को दीपक दिखाने के समान है। प्रातःस्मरणीय प्रभु ने अस्सी वर्ष की आयु पाई। गृहस्थ जीवन के इक्कीस वर्प, यति जीवन के इक्कीस वर्ष एवं साधु जीवन के अडतीस वर्ष, इस प्रकार कुल अस्सी वर्ष होते हैं। जीवन अनेक प्रकार के होते हैं। आपका जीवन एक सार्थक जीवन, एक आदर्श त्यागी जीवन। आप विरल विभूति, अद्भुत योगी सच्चे शासन प्रभावक, साहित्य प्रेमी, जनहितार्थ साहित्य रचयिता सरस्वती पुत्र थे। आपका जन्म एक ऐसे समय में हुआ था जिस समय जैन समाज में सामाजिक एवं धार्मिक क्रांति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। क्रांति तो सब चाहते थे; किन्तु आगे कदम रखनेवाला कोई व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। ऐसे समय में गुरुवर श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी का जन्म हुआ; तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो इस धरती को एक अनमोल रत्न की प्राप्ति हुई, जो अपनी कांति से अज्ञान का अंधकार मिटाने एवं ज्ञान की ज्योति जगाने आया हो।
आपका जन्म वि. सं. १८८३ पौष शुक्ला ७ (सप्तमी) गुरुवार तदनुसार दिसम्बर ३ सन् १८२७ को “भरतपुर' नाम के नगर में हुआ। पिताश्री - श्री ऋषभदास, माताश्री - श्रीमती केसरीवाई, ज्येष्ठ भ्राता - माणिकचन्द्रजी, ज्येष्ठा - गंगाबाई, कनिष्टा - प्रेमाबाई थे। आपका जन्म नाम 'रत्नराज' था।
आप वचपन से ही बुद्धिमान थे, इसलिए दस साल की उम्र में लौ शिक्षा में प्रवीण हो गए। आपने अपने बड़े भ्राता के साथ केसरियाजी एवं 'गोडवाड' की पंचतीर्थी की यात्रा की, फिर दोनों भ्राता पिताश्री की आज्ञा लेकर व्यापारोन्नति के लिए कलकत्ता एवं वहाँ से सिंहलद्वीप (श्रीलंका) इत्यादि स्थानों से द्रव्योपार्जन करके अपने घर लौटे। वापस लौटने के पश्चात् माता-पिता की सेवा - भक्ति की।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः ओक महान विभूति की ज्ञान अवं तपः साधना + ४०५