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________________ माणक सा. मेरी अनुभूति आदरणीय श्री माणकजी रूपचंदजी भंशाली के जीवनवृत, पर लेखन की जवाबदारी श्री धनवंतभाई ने मुझे दी है। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं आज तो कुछ भी लिख रहा हूँ यह सब उन्ही के आशीर्वाद का प्रतिफल है। आदरणीय श्री माणकजी भंशाली का जन्म दि. ०५ / दिसम्बर / १९४८ को मुम्बई में श्री रूपचंदजी भंशाली के परिवार में हुआ। परिवार के प्रथम पुत्र यथा नाम तथा गुण उनका नाम 'माणक' रखा गया। ऐसे नाम को चरितार्थ करने वाले माणकजी का जन्म सुसंस्कारी परिवार में हुआ । श्री माणक सा. जन्म से हि कुशाग्र बुद्धि के थे । असल में तो वे बुद्धि और भावना दोनों से समर्थ थे इस प्रकार का सामंजस्य विरल लोगों में ही देखा जाता है । विलक्षण बुद्धि से वह देख पाते जो और नहीं देख सकते थे। भावना से, प्रेम और साहस से वह कर पाते जो और कोई नहीं । जीवन भर की घटनाएँ इसी अद्भुत गुण - मिश्रण को दर्शाती हैं। आपकी धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि थी। विरासत में मिले माता-पिता के संस्कार उनमें पुरी तरह से समाऐ हुए थे। वे पिता के परम भक्त थे । पिताश्री का कोई भी आदेश उनके लिये शिरोधार्य व पथ्थर की लकीर था । पढाई में बहुत होशियार थे, युं तो वे ३ बडी बहन से छोटे थे व दो छोटे भाईयों से बडे परन्तु उनका सभी के साथ अटुट स्नेह था । मुझे याद है कि घर में जब सभी के लिये वे कपडे लाते थे तो उन्हे हॉल में रख देते थे और सभी से कहते थे कि सब अपनी-अपनी पसन्द के ले लो फिर आखिरी मे जो बचा रहता था वो स्वयं अपने लिये रखते थे । वे पुरे परिवार की स्नेह की धुरी थे । उनका प्रिय वाक्य था 'जो देने में मजा आता है वो लेने में नहीं' सदा दुसरों के कार्यो में साथ देने के लिये तत्पर, उदारता उनका सबसे प्रिय शौक था । " - बहुत ही अल्प आयु में आपने व्यापार शुरु किया । पहले कपडे का व्यापार मूलजी जेठा मार्केट से करते थे उनके भागीदार एक सिंधी भाई गोप सेठ थे। फर्म का नाम था 'आदि टेक्सटाईल्स' । आप अपने व्यवसाय में इतनी प्रामाणिकता से कार्य करते थे कि वर्ष के अंत में जब हिसाब मिलाते और अगर मुनाफा ज्यादा होता तो सभी खरीददार व्यापारियों को वापस 39
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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