________________
वाणी- विलास नाद सौंदर्य, महाकवि भारवि का अर्थगौरव तथा महाकवि माघ और हर्ष के प्रौढ पाण्डित्य जैसे गुणों के एकत्र समवाय से अभिमण्डित प.पू. माताजी के संस्कृत साहित्य एवं टीका साहित्य में जैन तत्त्वज्ञान की सहज निःस्यूति हुई है ।
'विषय के प्रतिपादन में वैदर्भी शैली, प्रसाद-माधुर्य गुण और शान्त रस से ओतप्रोत प्राञ्जल, परिष्कृत और परिनिष्ठित संस्कृत भाषा में प्रवाहमय चिन्तन की अभिव्यक्ति से ऐसा प्रतीत होता है कि प. पू. माताजी की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान है।
'प्रभूत आगम ग्रंथो के विश्लेषण, व्याख्यान विवेचन, लेखन, तपोनिष्ठ जीवनचर्या और जीवन कृतित्व के आधार पर उन्हे इस युग के 'श्रुत केवली' कहा जा सकता है।"
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प.पू. माताजी की दार्शनिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथों की सामर्थ्यपूर्ण टीकाओं का आचमन करने के बाद अनेक विद्वान उनके सामने स्वयमेव नतमस्तक हो जाते हैं। उन्हें अपने आपको प.पू. माताजी का चरण चञ्चरीक घोषित करने में कोई संकोच नहीं होता ।
प. पू. माताजी के सानिध्य में वडे-वडे चमरवंदी गर्विष्ठ विद्वानों को 'ऊँट हिमालय के नीचे आ गया ऐसी अनुभूति होती है। आप भी यदि उनके श्रुत साहित्य का अवगाहन निष्पक्ष होकर करेगें तो उपर के उद्गारों में कोई अतिशयोक्ति नहीं नजर आयेगी ।
प्रसंगवश इतना जान लीजिये कि प.पू. माताजी का व्यक्तित्व बेमिसाल कोहिनूर हीरे से भी अधिक जाज्वल्यमान है। उनका प्रत्येक पहलू उन्हें विशिष्टता के शिखर पर स्थापित करता है। इसलिये उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और विराट कृतित्व को शब्दवद्ध करने के लिए उटी लेखनी की अपूर्णता अवश्यंभावी है। अत्यंत आनंद होता है जब आप प.पू. माताजीके आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंति के अवसर पर प्रकाशित विशालकाय गौरवग्रंथ (पृष्टसंख्या ४४+१०००) का अवलोकन करते हैं। इस ग्रंथ में भी प. पू. माताजी के गुणगौरव को समाहित करना 'सिंधु को बिंदु में समाहित' करने के उपक्रम के समान है तो इस छोटेसे आलेख का तो सामर्थ्य ही क्या है ?
प. पू. माताजी की अन्तः स्फुरणा एवं प्रेरणा से जम्बूद्वीप तेरहद्वीप - तीनलोक आदि अनेक शास्त्रोक्त अद्वितीय रचनात्मक निर्माण, रथ प्रवर्तन द्वारा जन-जागरण अभियान, विद्वत्गांप्टियाँ आदि अनेकानेक प्रकल्प साकार हुए हैं।
प. पू. माताजी का आभा - मण्डल इतना शक्तिशाली हैं कि उनके सानिध्य में रहनेवाली आत्माओं की प्रतिभा स्वयमेव ही खिलने लगती है। वे उनके संपर्क में आने वाली सभी आत्माओं को स्व-कल्याण के लिये सदैव जाग्रत रहने का उपदेश देती है। एक पल के लिये भी कोई भूले नहीं कि आत्मा ज्ञानानन्द स्वभावी है। ज्ञानमयी है, ज्ञानरूप है, ज्ञान ही है। इसलिये ज्ञान-समुद्र में केलि करते हुए आत्मा
साहित्य-साम्राज्ञी प. पू. ज्ञानमती माताजी + २७७