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लाभान्वित हो रहा है।
प.पू. ज्ञानमती माताजी की लेखनी सतत चलती रहती है। यदि लेखन कार्य किसी दिन नहीं हो पाये तो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उपवास हो गया हो। वे लेखन को अपनी आत्मा का खुराक समझती है, जिससे शारीरिक अस्वस्थतामें भी वे प्रसन्न व स्वस्थ नजर आती हैं। जैसे भोजन के विना शारीरिक शिथिलता आने लगती है उसी प्रकार लेखन के अभाव में उन्हें शिथिलता का अनुभव होने लगता है।
शताधिक प्रमाणभूत जैन शास्त्रों का मंथन करके नवनीत निकालकर आगम के गूढ ज्ञान को सरस, सरल, मिष्ट एवं स्पष्ट शैली में लिखकर प्रदान करना यह जैन-समाज पर प.पू. माताजी की असीम अनुकंपा है। प.पू. माताजी का साहित्य अध्यात्मरसिक, ज्ञानपिपासु, धर्मपिपासु आत्माओं को जैनधर्म और द्वादशांगी रूप श्रुतज्ञान के सागर में तैरने का आनंद प्रदान करता है। मैं अपनी तरफ से जोडतोडकर बनाई गई दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा -
'वीर हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतम के मुख कुण्ड झरी है।
ज्ञान मती के ज्ञानामृत से, यह ज्ञान-वाटिका हरी-भरी है।' ज्ञानवानों का संबंध मुख्यतया ज्ञान से होता है और ज्ञानियों की महिमा आना उनके लिये स्वाभाविक ही है।
आ. श्री हेमचन्द्रने ठीक ही लिखा है कि "जिस किसी समय जिस किसी रूप में, जो कोई, जिस किसी नाम से प्रसिद्ध हो, यदि वह वीतराग पथ का पथिक है, तो वह त्रिकाल वंदनीय है।"
प.पू. माताजी के शिखरस्थ व्यक्तित्व, कृतित्व और वैदूष्य को देखकर विद्वत्ता और आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त मूर्धन्य विद्वानो की लेखनी से सहज प्रसूत हुये कतिपय उद्गार यहाँ उद्धृत करता हूँ -
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, अध्यक्ष-अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद, लिखते हैं कि 'संस्कृत काव्यजगत् में टीकाकार के रूप में जो ख्याति मल्लिनाथ को मिली, साहित्यशास्त्र के टीकाकारों में जो ख्याति अभिनव गुप्त को मिली, उनसे भी अधिक कीर्ति प.पू. आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी की संस्कृत और हिंदी टीका करने में है।'
प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन, 'भागेन्दु', डायरेक्टर, संस्कृत-प्राकृत तथा जैन विद्या अनुसंधान केन्द्र, दमोह (पूर्व सचिव, मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी) अपने विशाल अनुभव से एवं तुलनात्मक परीक्षण करने के बाद लिखते हैं कि 'संस्कृत काव्यजगत् में आदि कवि वाल्मीकि के स्वाभाविक प्रस्तुतिकरण, महर्षि व्यास की विश्लेषण क्षमता, महाकवि भास की सहजता, महाकवि कालिदास की उपमा प्रधान वैदर्भी शैली में निरुपण परता, महाकवि दण्डी का पद-लालित्य, महाकवि बाणभट्ट का
૨૭૬ કે ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો