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साहित्य-साम्राज्ञी
प. पू. ज्ञानमती माताजी
महेन्द्र गांधी
[મુંબઈ I.T.માંથી સાડાચાર દાયકા પહેલા મિકેનિકલ એન્જિનિયરીંગનો
અભ્યાસ ક૨ના૨ શ્રી મહેન્દ્રભાઈ ગાંધીએ વાંચનશોખ અને અધ્યાત્મ પ્રેમના કારણે અભ્યાસલેખ લખવાનો આ પ્રથમ સ્તુત્ય પ્રયાસ કર્યો છે. – સં.]
मानद उपाधियों से विभूषित गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि परम पूज्य 'ज्ञानमती' माताजी को इस निबंध का विषय बनाया गया है।
किसी महाविद्यालय आदि में पारम्परिक शिक्षा प्राप्त किये बिना मात्र स्वयं के धार्मिक अध्ययन के पुरुषार्थ से विदुषी - रत्न प. पू. माताजी ने अध्ययन, अध्यापन एवं साहित्य - निर्माण का जिन ऊँचाइयों को स्पर्श किया है, उस अगाध - विद्वत्ता के सम्मान हेतु डो. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय ने वीर नि. सं. २५२१ (सन् १९९५) में मानद् D. Lit की उपाधि प्रदान कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों में इस उपाधि को प्राप्त करने वाली प. पू. माताजी प्रथम व्यक्तित्व बन गई ।
श्री समंतभद्राचार्य विरचित 'वेवागम स्तोत्र' की आचार्य श्री विद्यानंद स्वामी रचित ‘अष्ट सहस्री' टीका का हिंदी अनुवाद, आ. श्री कुंदकुंद देव के 'नियमसार प्राभृत' पर संस्कृत में 'स्याद्वाद चन्द्रिका' टीका एवं 'समयसार प्राभृत' पर 'ज्ञान ज्योति' हिंदी टीका, सिद्धांत ग्रंथ 'षट्खण्डागम' पर १६ पुस्तकों में प्रकाशित विस्तृत संस्कृत टीका एवं अन्य साहित्य-सृजन का बहुमान करते हुए 'तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय'ने वीर नि. सं. २५३८ (सन् २०१२ ) में उन्हे पुनः मानद् D. Lit उपाधि से सम्मानित किया । यद्यपि जैन साध्वियों के लिए रत्नभूषण अलंकार धारण निषिद्ध है तथापि दिगंबर जैन समुदाय की यह सर्वोच्च साध्वी नखशिख अलंकारो से सज्ज है। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। समय-समय पर विभिन्न आचार्यों, प्राचार्यों, सामाजिक एवं विद्वत् संस्थाओं ने प.पू. माताजी को 'आर्यिकारत्न', 'आर्यिका शिरोमणि', 'गणिनी प्रमुख', 'तीर्थोद्धारिका', 'युग प्रवर्तिका', 'चारित्रचन्द्रिका', 'वात्सल्यमूर्ति', 'राष्ट्रगौरव', ‘न्याय प्रभाकर’, ‘सिद्धांत चक्रेश्वरी', 'वाग्देवी' इत्यादि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया है, किन्तु प. पू. माताजी तो इन सबसे निःस्पृह रहते हुए अपनी आत्मसाधना को
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