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धर्म स्थानों से मुक्त कर सार्वजनिन एवं सार्वभौम बनाना, मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाना तथा उपासना एवं क्रियाकाण्डों से मुक्त कर शुद्ध आचार-विचार से चरित्र निर्माण करना । अणुव्रत आचार संहिता का निर्माण कर छोटे-छोटे व्रतों द्वारा मानव को संयमित रहने का आह्वान किया। आप व्यक्ति सुधार में विश्वास करते थे। जब व्यक्ति की धारणाएं बदलेगी तो समाज का रूप भी अपने आप बदल जायेगा। धर्म के मंच से अणुव्रत जैसे निर्विशेषण मानव धर्म की स्थापना करने का महती प्रयास आपकी विलक्षण बुद्धि, दृढ संकल्प शक्ति एवं अपराजेय मनोवृत्ति का ही परिणाम है।
संकल्प शक्ति, आस्था एवं संयम के विकास हेतु आपने प्रेक्षाध्यान की विधि बताई जिससे मन की निर्मलता, चित्त की समाधिं एवं भावों की उच्चता का विकास होता है। अंतप्रेरणा का जागरण होता है तथा आत्म नियंत्रण एवं आत्मालोचन की प्रक्रिया प्रशस्त होती है। यह रुपान्तरण की ऐसी प्रक्रिया है जो ज्ञात से अज्ञात तथा स्थूल से सूक्ष्म जगत की ओर ले जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में जीवन विज्ञान के नाम से प्रयोग शुरू हुए। जीवन विज्ञान में अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय है । इसके द्वारा मस्तिष्क में असीम शक्ति की जागृति वगैर तनाव व थकान के की जा सकती है। जीवन विज्ञान पाठ्यक्रम का मुख्य उद्देश्य है।
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१. जीवन मूल्यों की शिक्षा
२. मानवीय संबंधों की शिक्षा
३. भावनात्मक विकास की शिक्षा
४. सिद्धान्त और प्रयोग के समन्वय की शिक्षा |
समण - समणी श्रेणी की अवधारणा आपके प्रगतिशील विचार एवं विकास का परिचायक है। उच्चतम आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षा प्रदान कर विश्व के कोने-कोने में भेजकर धर्म के शाश्वत सिद्धान्त सत्य, अहिंसा व अपरिग्रह द्वारा भ्रांत मानवता को परिचित कराया जो आज भी उसी तरह हो रहा है।
भाषा की दृष्टि से आपके साहित्य का अवलोकन करने पर हमें ज्ञात होता है कि संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिंदी के साथ-साथ मारवाडी, गुजराती आदि प्रान्तीय भाषाओं पर भी आपका अच्छा अधिकार था।
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने संस्कृत का जो बीजवपन किया था उसे गुरु कालूगणी ने अनेक कठिनाइयों के बावजूद सरल सुबोध व्याकरण द्वारा पल्लवित किया, जिसकी सुरक्षा, संरक्षा एवं विस्तार का कार्य आपके द्वारा किया गया। उन्नीसवीं सदी में संस्कृत के प्रति रुझान कम था । यद्यपि अच्छे विद्वान थे, परन्तु प्रचलित संकीर्ण विचारों के कारण वे जैन साधुओं का संस्कृत पढाना पाप मानते थे। पुरुषार्थ एवं संकल्प के धनी होने के कारण आपने हार नहीं मानी। गुरु ने आपको कण्ठीकरण का मार्ग बतलाया। आपने लगभग वीस बाईस हजार ग्रंथाग्र (अनुष्टुप श्लोक परिमाण) कण्ठस्थ कर लिये । 'गणरत्न महोदधि' तथा 'उणादि' जैसे आचार्य श्री तुलसी के साहित्यिक अवदान + १७५