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इसाई हैं। उस समय हम केवल मानव हैं, मानवता हमारा मूल धर्म है और मानव की शांति ही हमारा उद्देश्य है। तभी जाकर चिरस्थायी विश्वशांति स्थापित हो सकती है।'
शिक्षा प्रचार व सरस्वती मंदिरः गुरु वल्लभ की सबसे बडी देन शिक्षा-प्रचार के क्षेत्र में है। वे जानते थे कि शिक्षा के बिना समाज या देश की प्रगति नहीं हो सकती। बंबई में अक जैन कालेज खोलने के लिए ईस्वी सन् १८९४ में जो पत्र अंबाला से उनके गुरु आचार्य विजयानंदसूरिजीने लिखवाया था, वह मुनि वल्लभविजय के हाथ व कलम से लिखा गया था। इन्हीं परम गरुदेव के अंतिम संदेश कि 'जगह-जगह सरस्वती मंदिर खोलना' को विजय वल्लभने अपने जीवन का लक्ष्य बना दिया। सन् १९१८ में गोडवाड के क्षेत्र में लुटेरों ने उनको व साथ चल रहे मुनिगण को लूट लिया। चिंतन की गहराई में उनको लगा कि यह सब अज्ञान के कारण हुआ। इस क्षेत्र का अज्ञान अंधकार दूर करने के उपाय खोजने चाहिएँ। राजस्थान के पूरे क्षेत्र समेत देश भर में विद्या-दीप जलाने के लिए उन्होंने स्कूलों, पाटशालाओं, कन्याशालाओं, बोर्डिंग और कालेजों की एक शृंखला ही खडी कर दी। ___ सन् १९१४ में महावीर जैन विद्यालय-बंबई की स्थापना, १९२४ में श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल-गुजराँवाला और १९३८ में श्री आत्मानंद जैन डिग्री कालेज अंबाला की स्थापना की। गुरुकुल के चांसलर पद को कई साल तक सुशोभित किया। उच्च शिक्षा के लिए योग्य विद्यार्थीयों को विदेश भिजवाया। वे व्यवहारिक शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा द्वारा मानव को चरित्रवान बनाने के अभिलापी थे। वनारस हिंदु यूनिवर्सिटी की स्थापना के समय पंडित मदन मोहन मालवीयजी को फण्ड भिजवाए और वहाँ जैन पीट की स्थापना कर के प्रकाण्ड विद्वान पं. सुखलालजी को डायरैक्टर पद पर आसीन किया। अपने स्वर्गवास से मात्र एक साल पहले समाज के नाम दिये गए संदेश में भी कहा 'एक जैन युनिवर्सिटी की स्थापना हो फलस्वरूप सभी शिक्षित हों, कोई भूख से दुःखी न हो।'
२२-९-१९५४ को, बंबई में आपके स्वर्गवास की खबर को ऑल इण्डिया रेडियो तथा वी.वी.सी. ने सुबह के न्यूज वुलेटिन में – ‘महान शिक्षा शास्त्री जैनाचार्य विजयवल्लभसूरिजी के स्वर्ग सिधारने' का समाचार प्रसारित किया। उनके शिक्षा प्रचार को पूरे राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि थी।
देव द्रव्य व साधारण खाताः अपने जीवन काल में विजयवल्लभ ने दो मुनि सम्मेलनों का संयोजन एवं भाग लिया। प्रथम सम्मेलन में तत्कालीन आचार्य विजय. कमलसूरिजीने अपनी ओर से बोलने एवं मंच चलाने की पूरी जिम्मेदारी विजयवल्लभ को सौंपी थी। दूसरे वृहत तपागच्छीय सम्मेलन में आचार्य विजय नेमिसूरि, आ. सागरानंदसूरि, आ. विजयदानसूरि, आ. विजय धर्मसूरि, आ. विजयशांतिसूरि, आ. विजयलब्धिसूरि, आ. विजय रामचंद्रसूरि तथा आ. विजयवल्लभसूरि ने भाग लिया। इसमें जब स्वप्नों की बोलियों की राशी की बात चली तो विजयवल्लभने बेधडक
૭૦ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો